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पाण्डवपुराणम् घना दुर्गाटवी तस्य सहस्राण्यष्टसप्ततिः । अष्टादशसहस्रोक्तम्लेच्छराजनतस्य च ॥१८ निधयो नव तस्यासन रत्नानि च चतुर्दश । चक्रिणश्चरणत्राणे पादुके विषमोचिके ॥१९ अभेधाख्यं तनुत्राणं रथश्चास्याजितंजयः । वज्रकाण्डं धनुः प्रोक्तममोघाख्याः शराः स्मृताः ॥ शक्तिस्तु वज्रतुण्डाख्या कुन्तः सिंहाटको मतः । असिरत्नं सुनन्दाख्यं खेटे भूतमुखं मतम् ॥ चक्र सुदर्शनं चण्डवेगो दण्डः सुदण्डकृत्' । वज्रमयं चर्मरत्नं चिंतामणिस्तु काकिणी ।।२२ पवनंजयनामाश्वो हस्ती विजयपर्वतः । आनन्दिन्यो महाभेर्यो द्वादशेति जिनेशितुः ॥२३ तावन्तस्तस्य विजयघोषाख्याः पटहा मताः । एवमृद्धया समृद्धःस व्यरंसीत्तु कदाचन ॥२४ अरविन्दकुमाराय दत्त्वा राज्यं वसूनवे । लौकान्तिकसुरोद्दिष्टपथः सत्पथदेशकः ॥२५ वैजयन्त्याख्यशिबिकां प्राप्य त्रिदशवेष्टितः । सहेतुकवने वन्यवृत्तिः षष्ठोपवासभृत् ॥२६ दशम्यां मार्गशीर्षस्य शुक्ले सहस्रभूमिपैः । प्रावाजीद्राजतः पूज्यो देवानामरदेवराट् ॥२७ चतुबुद्धिधरो धीमान्पारणान्यपराजितात् । नृपाचक्रपुरे प्राप पारणं परमोधतः ।।२८ संवाह्य षोडशाद्वान्स छामस्थ्येन सुछद्मगः । जघान घातिसंघातं व्यघो विमान इत्यरः ॥२९
प्रभुके अठहत्तर हजार सघन और दुर्गम अरण्य थे । प्रभुको अठारह हजार म्लेच्छ राजा नमस्कार करते थे। वे प्रभु नवनिधि और चौदह रत्नोंके अधिपति थे । चक्रवर्तिके चरणोंकी रक्षा करनेवाली विषमोचिका नामक पादुकायें थी तथा अभेद्यनामक कवच और अजितंजय नामका रथ था । वज्रकाण्ड नामक धनुष्य और अमोघ नामक बाण थे ॥ १८-२० ॥ प्रभुकी वज्रतुण्डा नामक शक्ति ( शस्त्रविशेष ) थी और · सिंहाटक ' नामक कुन्त-भाला था । सुनन्द नामक खड्गरत्न और भूतमुख नामकी ढाल थी । सुदर्शन नामक चक्ररत्न और शत्रुओंको शासन करनेवाला चण्डवेग नामक दण्डरत्न था । वज्रमय चर्मरत्न, चिन्तामाणि रत्न और काकिणी रत्न थे॥२१-२२॥ जिनेश्वरके पवनंजय नामका घोडा, विजयपर्वत नामका हाथी, और आनन्दिनी नामक बारां भेरी-नगारे थे । उतनेही विजयघोष नामके पटहवाद्य थे । इस तरहके ऐश्वर्यसे प्रभु समृद थे। परंतु प्रभु ऐसे अपार वैभवसे भी एक दिन विरक्त होगये ॥ २३-२४ । उन्होंने अपने पुत्र अरविन्द कुमारको सारा राज्य दिया। लोकान्तिक देवोंने प्रभुके रत्नत्रय मार्गका कथन क्रिया । सन्मार्गके उपदेशक प्रभु वैजयन्ती नामक पालखीमें बैठकर सर्व देवोंके साथ सहेतुक वनमें गये। वहां प्रभुने वन्यवृत्ति धारण की अर्थात् वनमें रहे। दो दिनका उपवास धारण कर मार्गशीर्ष शुक्ल दशमीके दिन हजार राजाओंके साथ दीक्षा धारण की । राजपूज्य तथा देवपूज्य अरनाथ तीर्थकर दीक्षाके अनंतर चार ज्ञानोंके धारक हुए । पारणाके दिन धीमान् प्रभु आहारके लिये चक्रपुर नगरमें गये । वहां उनको अपराजित राजासे पारणा प्राप्त हुई ॥ २५-२८ ॥ उत्कृष्ट मोक्षमार्गमें उद्युक्त हुए प्रभुने छमस्थ अवस्थामें सोलह वर्ष व्यतीत किये । तबतक उनको केवलज्ञान प्राप्त नहीं हुआ । तदनंतर घातिकमोंका नाश -
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