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________________ पाण्डवपुराणम् महाज्वालाप्रभावेन युद्ध्वा मासार्धमेव च । नष्टविद्यो ननाशाशु वज्रघोषः परंतपः ॥१८७ नाभेयाद्रौ स्थितं देवं विजयाख्यजिनेश्वरम् । गत्वा भीत्वा सभायां स स्थितस्तावनृपादयः।। अनुगत्वा विलोक्याशु मानस्तम्भ गलन्मदाः । जिनं प्रदक्षिणीकृत्य प्रणेमुमधपाणयः॥१८९ मुक्तवैरास्तदा सर्वे तत्रासिषत ते समम् । तदासुरी समागत्य सुतारां द्रुतमानयत् ॥ १९० मत्पुत्रस्यापराध भो युवां क्षन्तुं समर्हतम् । साभाष्येत्यार्पयत्तां श्रीविजयामिततेजसोः॥१९१ ततः खगपतिपृष्टं धर्म प्रोवाच तीर्थराट् । सम्यक्त्वत्रततत्त्वार्थं श्रुत्वा भूपोऽब्रवीदिति ॥१९२ सुतारा मेऽनुजानेन हृता वै केन हेतुना । इति पृष्टो विशिष्टः सोऽवादीदेवो नृपं प्रति॥१९३ भरते मागधे देशेऽचलग्रामे निवासभृत् । आमिलास्त्रीपतिविप्रो विदितो धरणीजटः॥१९४ तत्सुताविन्द्रभूत्यग्निभूतौ जातौ मनोहरौ । दासेरः कपिलस्तस्य वेदाध्ययनसक्तधी॥ १९५ तं वेदार्थविदं मत्वा विप्रो हि निरजीगमत | विषण्णः कपिलस्तस्माद्ययौ रत्नपुरं परम्॥१९६ वेदाध्ययनयुक्ताय सत्यभामां च सत्यकिः । विप्रो जम्बूद्भवां पुत्रीं विधिनास्मै समार्पयत् ।। महाज्वाला विद्याके प्रभावसे राजाने अशनिघोषके साथ अर्धमासतक युद्ध किया । तब अशनिघोषकी सब विद्या नष्ट हो गई। वह भाग गया ॥ १८७ ॥ नाभेयपर्वतके ऊपर विराजमान हुए श्रीविजय नामके जिनेश्वरके पास जाकर भयसे वह अशनिघोष समवसरणमें बैठ गया। इतने में श्रीविजय राजा आदिक उसके पीछे आगये । मानस्तंभ देखकर उनका मद नष्ट हुआ । जिनेश्वर को प्रदक्षिणा दे कर अपने मस्तकपर दोनों हाथ जोडकर उन्होंने वंदन किया। वैर छोडकर वे सर्व सभामें एकत्र बैठ गये। उस समय अशनिघोषकी माता आसुरी शीघ्रही सुतारा को वहां साथ ले आयी और मेरे पुत्रके अपराध आप दोनों क्षमा करें ' कहकर उसने श्रीविजय और अमिततेजको सुतारा अर्पण की ॥ १८८-१९१ ॥ [ सुताराके पूर्वभवोंका कथन ] तदनंतर अमितगति विद्याधरको केवली जिनने धर्मका स्वरूप बताया। सम्यग्दर्शन, अहिंसादिक व्रत, जीवादिक सप्ततत्त्व और पापपुण्य सहित नव पदार्थ इनका स्वरूप प्रभुने कहा । धर्मस्वरूप सुनकर मेरी छोटी भगिनी सुताराको अशनिघोष क्यों हर लेगया ? ऐसा प्रश्न अमिततेजने केवलीको पूछा तब विशिष्ट मुनियोंके स्वामी अर्थात् ऋद्धिधारी, अवधिज्ञानी आदि मुनियों के अधिपति विजय केवलीने नीचे लिखा हुआ उनका पूर्वभवसंबंध कहा ॥ १९२-१९३ ॥ " इस भरत क्षेत्रके मगध देशमें अचल नामके गांवमें धरणीजट नामक प्रसिद्ध ब्राह्मण अपनी पत्नी अग्निलाके साथ रहता था। इन दम्पतीको इंद्रभूति और अग्निभूति नामके दो मनोहर पुत्र थे और कपिल नामक दासीपुत्र था। हमेशा वेदाध्ययनमें उसकी बुद्धि लीन था। धरणीजटने दासीपुत्र वेदार्थज्ञ हुआ देखकर उसे अपने घरसे निकाल दिया। खिन्न हुआ कपिल धरणांजटके घरसे निकलकर रत्नपुर चला गया ।" ॥१९४-१९६॥ “वेदाध्ययनमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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