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________________ अकम्पोऽकम्पनोराति संयुगे कम्पयन्ययौ । सूर्यमित्रः सुकेतुश्च जयवर्माथ श्रीधरः ।।९४ देवकीर्तिश्च मुकुटबद्धा जग्मुर्जयं प्रति । नाथसोमान्वयाश्चान्ये भूपास्तं परिवत्रिरे ।।९५ मेघप्रभोऽर्धविद्येशैविद्याधीशस्तमासदत् । विरच्य मकरव्यूह रेजे मेघस्वरस्तदा ॥९६ चक्रव्यूहं विरच्याशु सोऽर्ककीर्तिजयत्यलम् । सुनमिप्रमुखाः खटास्ताक्ष्यव्यूहमरीरचन् ॥९७ अष्टचन्द्राः खगाश्चक्रिपुत्रं च परिवत्रिरे । ततो भटा भेटैः साधे योयुध्यन्ते रणाङ्गणे ॥९८ विपक्षहृदयं भित्वा शरास्तेषां विशन्ति च। दण्डादण्डि भटा भेजुःखड्गाखङ्गि कचाकचि ॥९९ कुन्ताकुन्ति तयोर्युद्धं गदागदि शराशरि । मुशलामुशलि क्षिप्रं हलाहलि शिलाशिलि ॥१०० विशिखाश्चार्ककीर्तीनां ज्वलज्ज्वालाशिखोपमाः। जयानां योधमुख्यानां बिभिदुहृदयानि वै॥१०१ विलोक्य स्वबलं क्षिप्तं स तदा सानुजो जयः। वज्रकाण्डं धनुर्लात्वा समारेभे महाहवम्।।१०२ वादिनेव जयेनोच्चैः क्षिप्रं कीर्ति जिघृक्षुणा । प्रतिपक्षः प्रतिक्षिप्तः शास्त्रैः शस्त्रर्जिगीषुणा ॥१०३ खेचराः खेचरान्क्षिप्रं क्षिपन्ति गगने गताः । विद्यायुद्धग्रहग्रस्ता भेजुः संगरसंगरम् ॥१०४ समवेगैः सम मुक्तबाणगंगनभूचरैः। अभ्रेज्योन्यमुखालग्नः स्थितं कतिपयक्षणान्॥१०५ समय स्त्रिया भी वीरके समान हो गयी ॥ ९१-९३ ॥ धीर अकम्पन महाराज शत्रुओंको कम्पित करते हुए युद्धमें चले गये । सूर्यमित्र, सुकेतु, जयवर्मा, श्रीधर और देवकीर्ति ये मुकुटबद्ध भूपाल जयकुमारके पास आगये । नाथवंशी और सोमवंशी अन्य राजगण भी जयकुमारसे आ मिले । मेघप्रभ नामक विद्याधरोंका राजा आधे विद्याधरराजाओंको साथ लेकर जयकुमारसे आ मिला । उस समय जयकुमार मकरव्यूहकी रचना कर शोभने लगा ॥ ९४-९६ ॥ शीघ्रही चक्रव्यूहकी रचना कर अर्ककीर्तिने जय प्राप्त किया । सुनमि आदिक विद्याधर राजाओने गरुडव्यूहकी रचना की । अष्टचन्द्र विद्याधरोंने चक्रिपुत्र अर्ककीर्तिका आश्रय लिया । इस प्रकार तयारी होनेके अनन्तर वीरपुरुष प्रतिपक्षवीरोंके साथ रणाङ्गणमें लडने लगे ॥ ९७-९८ ॥ अन्योन्यके बाण शत्रुहृदयको भेदकर उनमें घुसने लगे । वीरगण दंडों, तरवारों, भालाओं, गदाओं, बाणों, मुसलों, हलों और शिलाओंसे अन्योन्य लडने लगे । तथा एक दूसरेके केश पकडकर युद्ध करने लगे ॥९९-१००॥ प्रज्वलित ज्वालाओंके अग्रके समान अर्ककीर्तिके वीरोंके बाण जयकुमारके वीरमुख्योंके हृदयोंको भेदने लगे । अपने सैन्यको पराजित हुआ देखकर अपने छोटे भाईयोंके साथ युद्धस्थलमें आकर उसने वज्रकाण्ड धनुष्य हाथमें लेकर भयानक युद्ध किया ॥ १०१-१०२ ।। कीर्तिके इच्छुक तथा प्रतिवादीको जीतनेकी इच्छा रखनेवाले वादीके समान शत्रुको जीतनेकी इच्छा रखनेवाले जयकुमारने शस्त्रोंके द्वारा बडे जोर शोरसे शीघ्रही शत्रुको पराजित किया ॥१०३॥ आकाशमें विद्याधर वीर अपने प्रतिपक्षी विद्याधरवीरोंको परास्त करने लगे । विद्यायुद्धके ग्रहसे ग्रस्त होकर विद्याधर प्रतिपक्षी मारनेकी प्रतिज्ञा कर लडने लगे ॥ १०४ ॥ जिनका वेग समान है, जो समान-समयमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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