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________________ ४३ चतुर्थ सर्गः त्वमान्तरालिकः कश्चिदस्थापित महत्तरः । स्वमनीषिकया किञ्चिदित्यसंबन्धमभ्यधाः ।।७१।। शूरो राजसुतंमन्यो वैरकारस्य चित्तवान् । युद्धाय चलमानस्य दूतं को वा विसर्जयेत् ॥७२॥ भवदागमनादस्मान्ममापि जपते मनः 1 खेचराणां जनान्ते किं परिभाषेयमीदृशी ॥७३॥ साम स्तुतिप्रिये योज्यमथ व्युग्राहिते तथा । लुब्धप्रकृतिके दानं दुर्गते दुःस्थितेऽपि वा ।। ७४ ।। यस्य प्रकृतयो नित्यं क्रुद्धभीतापमानिताः तस्मिन्भेदः प्रयत्नेन प्रयोज्यो नीतिशालिना ।।७५।। दण्डस्य विषयः प्रोक्तो देवपौरुषवजितः । उपायविषयाः पूर्वेरिति तज्ज्ञैः प्रकीर्तिताः ॥ ७६ ॥ | एतेषु नाहमप्येकः कश्चिदेव मुधा त्वया । किमुपाया मयि न्यस्ता 'नवकः किं भवान्नये ॥७७॥ क्षुद्रो विचोभ्यते वाक्यैस्तवैभिर्न समुन्नतः । केनापि शशपाशैः किं गृहीतोऽस्ति मृगाधिपः ॥ ७८ ॥ किं नैकेनापि हन्यन्ते सिंहेन बहवो द्विपाः । कृच्छ्रादिति मयोक्तस्य रणे व्यक्तिर्भविष्यति ॥ ७६ इयन्तीं भूमिमायातुं शक्नुयात्स कथं सुखी । तत्र तेन समं योत्स्ये गत्वाहं चक्रवर्तिना ॥ ८० इत्युदीयं गृहीतासिरुत्तिष्ठासुर्मया धृतः । श्रयं कथमपि भ्राता भवदागमनात्पुरा ॥ ८१ ॥ इति युद्धाय निर्भत्स्यं तेन मुक्तो वचोहरः । दमितारेः सभामध्ये यथाप्राप्तमुदाहरत् ||८२ ॥ जो बड़े लोगों को टिकने नहीं देते । इसीलिये अपनी बुद्धि से कुछ इस प्रकार की भ्रटपटी बात कह रहे हो ।।७१ ।। शूर वीर तथा अपने आप को राजपुत्र मानने वाला ऐसा कौन विचारवान् मनुष्य होगा जो युद्ध के लिये चलने वाले शत्रु के लिये दूत भेजता हो ॥७२॥ श्रापके इस भागमन से मेरा भी मन ज्जित हो रहा है । क्या विद्याधरों के देश में ऐसी ही परिभाषा है ।। ७३ ।। साम का प्रयोग ऐसे शत्रु के साथ करना चाहिये जिसे स्तुति प्रिय हो तथा दान का प्रयोग उसके साथ करना चाहिये जो स्वभाव का लोभी हो, दरिद्र हो अथवा किसी संकट में हो ||७४ || नीतिशाली मनुष्य को भेद का प्रयोग उसमें करना चाहिये जिसकी प्रजा अथवा मन्त्री आदि वर्ग निरन्तर क्रुद्ध, भयभीत अथवा अपमानित रहते हों ||७५ || और दण्ड का विषय वह कहा गया है जो दैव और पौरुष से रहित हो । उपायों के ज्ञाता पूर्व पुरुषों ने उपायों के विषय इस प्रकार कहे हैं ।। ७६ ।। इनमें से मैं एक कोई भी नहीं हूँ फिर तुमने व्यर्थ ही मुझ पर ये उपाय क्यों रक्खे ? क्या आप नय के विषय में नवीन हैं- नय प्रयोग का आपको कुछ भी अनुभव नहीं है ||७७|| तुम्हारे इन वाक्यों से क्षुद्र मनुष्य लुभा सकता है उत्तम मनुष्य नहीं । क्या खरगोश के बन्धन से किसी ने सिंह को पकड़ा है ? ||७८ || क्या एक ही सिंह के द्वारा बहुत से हाथो नहीं मारे जाते ? इस प्रकार दुःख के साथ जो मैंने कहा है उसकी युद्ध में प्रकटता हो जायगी ॥७६॥ सुख से रहने वाला दमितारि इतनी भूमि तक इतने दूर तक आने के लिये कैसे समर्थ हो सकता है ? इसलिये मैं स्वयं चल कर उस चक्रवर्ती के साथ युद्ध करूंगा ||50|| इस प्रकार कह कर तलवार को ग्रहण करता हुआ जो उठना चाहता था ऐसे इस भाई को आपके आगमन के पहले मैंने किसी तरह का है ।। ८१ ।। इस प्रकार युद्ध के लिये डांट कर राजा अपराजित ने जिसे छोड़ा थाविदा किया था ऐसे प्रीतिवर्धन दूत ने दमितारि की सभा के बीच जो बात जैसी हुई थी वैसी कह दी ।। ८२ ॥ - १ नवीनः २ द्वतः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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