________________
श्रीशांतिनाथपुराणम्
स्मृत्वा सम्यक्पुराधीतं भुतं प्रश्रयवान्भव । प्रश्रयो हि सतामेकमग्राम्यं मूरिभूषणम् ॥६॥ क्वापि भूत्वा कुतोऽप्येत्य गुणवान् लोकमूर्धनि । विदधाति पदं 'वाक्षः सुरभिः प्रसवो यथा ॥६२॥ मारोप्यतेश्मा शैलाग्न कृच्छारसंप्रेर्यते सुखात् । ततः पुंसां गुणाबानं मिर्गुणत्वं च तत्समम् ॥६३।। गुरुकल्पात्प्रभोस्तस्मान्नाशङ्कयं किमपि त्वया । तवाक्षमिष्ट भूपालः प्रमादविहितागसः ॥६४॥ ल्यन कन्यामथायाहि नत्वा वीक्ष्य स्वचक्रिरणम् । तवेदं मद्वचः पथ्यमपथ्यं त्वद्विचेष्टितम् ॥६५॥ द्विषतोऽपि परं साहितायव प्रवर्तते । किं . राहुममृतेश्चन्द्रो असमानं न तर्पयेत् ॥६६।। तमाक्रम्य गिरं धोरामभिन्ननयसन्ततिम् । इति व्यक्तमुदाहृत्य व्यरंसोत्प्रीतिवर्धनः ॥६७।। ततः कोपकषायाक्षं विवक्षास्फुरिताधरम् । स दृशैवानुजं रुद्ध्वा वीरमित्याददे वचः ॥६८।। उपायान्संकलय्यैतांश्चक्षुरोऽपि यथाक्रमम् । इति त्वमिव को वाक्यं प्रवक्तुं कल्पते परः ॥६६॥ सुव्यक्तोऽपि ममोद्योगस्त्वया कि नोपलक्षितः । कि तेन तत्सभामध्ये सौविदल्लेन कीर्तितः ॥७०॥
हाथी भी सिंह से वैर नहीं करता ॥६०॥ पहले अच्छी तरह पढ़े हुए शास्त्र का स्मरण कर विनयवान् होरो । क्योंकि विनय सत्पुरुषों का एक उत्तम तथा बहुत भारी आभूषण है ॥६१।। जिस प्रकार वृक्ष का सुगन्धित फूल कहीं भी उत्पन्न होकर और कहीं से भी प्राकर लोगों के मस्तक पर अपना स्थान बना लेता है उसी प्रकार गुणवान् मनुष्य कहीं भी उत्पन्न होकर तथा कहीं से भी प्राकर लोगों के मस्तक पर अपना पैर रखता है अथवा स्थान बना लेता है ।।६२।। पत्थर पर्वत के अग्रभाग पर कठिनाई से चढ़ाया जाता है परन्तु गिरा सुख से दिया जाता है । उसी के समान मनुष्यों के गुणों की उत्पत्ति कठिनाई से होती है परन्तु उनका अभाव सुख से हो जाता है ।।६३।। राजा दमितारि तुम्हारे पिता के तुल्य हैं अतः उनसे तुम्हें कुछ भी शंका नहीं करना चाहिये । प्रमाद से अपराध करने वाले तुम्हारे ऊपर राजा ने क्षमा कर दिया है ।।६४।। अब आओ अपने चक्रवर्ती के दर्शन कर उन्हें नमस्कार करो तथा कन्या को छोड़ो। मेरा यह वचन तुम्हारे लिये हितकारी है किन्तु तुम्हारी चेष्टा महितकारी है ॥६५॥ सज्जन. शत्रु को भी हित के लिये ही अत्यधिक प्रवृत्ति करता है सो ठीक ही है क्योंकि क्या चन्द्रमा ग्रसने वाले राहु को अमृत से संतृप्त नहीं करता ? ॥६६।। इस प्रकार प्रीतिवर्धन, अपराजित के पास आकर तथा नय की सन्तति से परिपूर्ण गम्भीर वचनों को स्पष्ट रूप से कह कर चुप हो गया ।। ६७।।
- तदनन्तर जिसके नेत्र क्रोध से लाल हो रहे थे तथा बोलने की इच्छा से जिसका प्रोठ काँप रहा था ऐसे वीर छोटे भाई अनन्त वीर्य को दृष्टि से ही रोक कर अपराजित ने इस प्रकार के वचन ग्रहण किये-इस प्रकार बोलना शुरू किया ॥६८। यथाक्रम से चारों उपायों को संकलित कर इस प्रकार के वचन कहने के लिये दूसरा कौन समर्थ है ? ||६६।। मेरा उद्योग यद्यपि स्पष्ट है तथापि तुमने उसे क्यों नहीं देखा? इसी प्रकार राजा दमितारि की सभा के मध्य में भी कञ्चुकी ने मेरा उद्योग स्पष्ट कहा था, फिर उसने उसे क्यों नहीं ग्रहण किया ? ||७०।। तुम कोई बीच के दलाल हो
१ वृक्षस्यायंवाक्ष: २ प्रमादेन विहितम् अमोऽपराधो येन तस्य ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org