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श्रीशांतिनाथपुराणम्
नृणां परप्रयुक्तानां गूढानां च "प्रतिक्रियाम् । व्यधत्त
सुविचार्यमिदं पूर्व परात्मबलयोः परम् । प्राधिक्यं देशकालौ च 'क्षयवृद्धी च धीमता ।। १५ ।। यो गुणप्रातिलोम्येन विजिग्राहयिषुः परम् । स पातयति दुर्बु द्विस्तरं स्वस्योपरि स्वयम् ॥ १६॥ श्रासीद्विद्या विनोतानामतरुस्तिलकोऽपि सन् । उपास्थितः स्वयं वृद्धान्सेवनीयोऽपि यः सताम् ||१७|| प्रन्तःस्थारातिषड्वर्गविजयैकयशोधनः । श्राज्ञा सोत्पुरुषान्गूढान्प्रयोक्तु स्वपदेषु सः ॥१८॥ सहजानूनवीर्य 'शौयं समन्वितः ||१६|| कृत्याकृत्यपक्षेकपरिरक्षापरायणः । श्रासीत्स्य विषये नित्यं स्वप्रतापोपशोभिते ॥ २०॥ द्राक् कृत्याकृत्यपक्षस्य परदेशभुवः परम् । उपग्रहविधिज्ञोऽन्यस्तादृशो न भविष्यति ।। २१ । यः सुसंवृतमन्त्रस्थः सप्तव्यसनवर्जितः । स्वरक्षरणपरो नित्यं शूरोऽप्यासीत्समन्ततः ॥२२॥ अनुग्राह्यो मण्डलेशैर्यः ' षाड्गुण्यप्रयोगवित् । सुदुर्गलम्भोपायानां बोद्धा बुद्धिमतां मतः ॥२३॥ प्रज्ञासीत् प्रपचं यः प्रयोगं च बलीयसाम् । शक्त्या सामन्तसंयुक्तो मित्रसंपद्विभूषितः ॥ २४॥
यः
कि शत्रु और अपनी सेना में अत्यधिक अधिकता किसकी है? इसी तरह दोनों के देश काल तथा क्षय और वृद्धि का भी विचार करना चाहिये ||१५|| जो राजा गुणों की प्रतिकूलता से शत्रु के साथ विग्रह करना चाहता है वह मूर्ख स्वयं अपने ऊपर वृक्ष गिराता है । भावार्थ – शत्रुके बल की अधिकता, अपने बल की हीनता, शत्रुके देश काल की अनुकूलता; अपने देश काल की प्रतिकूलता तथा शत्रु की वृद्धि और अपनी हानि के रहते हुए भी शत्रु से युद्ध छेड़ता है वह अपने आपको नष्ट करता है ||१६|| जो दमितारि विद्या से विनम्र मनुष्यों का तिलक - तिलक वृक्ष ( पक्ष में श्रेष्ठ ) होता हुआ भी वृक्ष नहीं तथा सत्पुरुषों का सेवनीय होता हुआ भी जो वृद्धजनों की स्वयं सेवा करता था ।। १७|| अन्तरंग में स्थित काम क्रोध आदि छह शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने से यश रूपी धन को धारण करने वाला जो राजा अपने स्थानों में गूढ़ पुरुषों - गुप्तचरों को प्रयुक्त करने की आज्ञा देता था || १८ || जन्म जात पूर्ण वीरता और शूरता से सहित जो राजा शत्रु के द्वारा प्रयुक्त गूढ़ पुरुषों का प्रतिकार करता था ।। १६ ।। जो स्वकीय प्रताप से सुशोभित अपने देश में करने योग्य और न करने योग्य पक्षों में से एक पक्ष की रक्षा करने में सदा तत्पर रहता था ।। २० ।। शत्रु के देश में होने वाले कृत्य श्रौर प्रकृत्य पक्ष को उपकार विधि को शीघ्रता से जानने वाला उसके समान दूसरा नहीं होगा । भावार्थ - वह दमितारि शत्रु देश में होने वाले करणीय और प्रकरणीय कार्यों के परिणाम को अच्छी तरह जानता है ||२१|| जो अपने मन्त्र को अच्छी तरह छिपा कर रखता है, सप्त व्यसनों से रहित है, निरन्तर प्रात्म रक्षा में तत्पर रहता है और सब ओर प्रसिद्ध शूरवीर भी है ॥२२॥ जो मण्डलेश्वरों के द्वारा अनुग्राह्य है - सब मण्डलेश्वर जिसके हित का ध्यान रखते हैं, जो सन्धि विग्रह आदि छह गुणों के प्रयोग को जानता है, दुर्गम स्थानों को प्राप्त करने वाले उपायों का जानकार हैं पर बुद्धिमान् जनों को इष्ट है ||२३|| जो बलिष्ठ जनों के प्रपञ्च पूर्ण प्रयोग को जानता है. शक्ति
१ हानिलाभो २ गुणविरोधेन ३ विग्रहं विद्वेषं कारयितु मिच्छुः यः ब ० ४ शत्रुप्रेषितानाम् ५ प्रतिकारम् ६ भ्रात्मनोबलं वीर्यं वारीरिक बल शौर्यम् ७ द्यूतादिसप्तव्यसन रहितः ८ 'सन्धिविग्रह्यानानि संस्थाप्यासन मेव च । ई श्रीभावश्च विज्ञेया: षड्गुणा नीतिवेदिनाम्' । एषां षड्गुणानां प्रयोगं यो वेत्ति सः ।
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