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द्वितीय सर्गः
१५ एतयाजेन किं सोऽस्मानस्वीकर्तुमभिवाञ्छति । उत विध्वंसयत्यन्तः प्रविश्य परमार्थतः ॥८॥ परं बिभेति बुद्धात्मा भूपस्याकस्मिकात्प्रियात् । कालकुसुमोद्भवात्तरोर्वा विक्रियात्मनः ॥६॥ मनस्यन्यद्वचस्यन्यदन्यदेव विचेष्टिते । प्रसवृत्तं कलत्रे यज्जिगोषो तत्प्रशस्यते ॥१०॥ कि विधेयमतोऽस्माभिस्तत्रेति विरते प्रभो । अनुज्ञातो दृशा सभ्यरभ्यधत्तेति सन्मतिः ॥११॥ नीतिसारमुदाहृत्य भवत्यवसिते नयम् । यो ब यादपरः किञ्चित् स सर्वस्त्वत्प्रतिध्वनिः ॥१२॥ तथापि 'प्रस्तुतस्यास्य वस्तुनो विस्तृतात्मनः । स्वरूपमात्रकं किञ्चित्कञ्चित्कथ्यते मया ॥१३॥ पुरवाजिताशेषविद्याधरमहीभृतः । तस्य पश्चादभूच्चक्रं' : पुनरुक्तमिव प्रभोः ॥१४॥
तृण भी नहीं मानते-तृण से भी तुच्छ समझने लगते हैं । देखो, दान-मद रहित ऊंचे हाथी को भी लोग तृण लाने के लिये चलाते हैं । भावार्थ-जिस प्रकार लोक में दानरहित-मदरहित हाथी की कोई प्रतिष्ठा नहीं है उसी प्रकार दान रहित-त्याग रहित मनुष्य की भी कोई प्रतिष्ठा नहीं है ॥७॥ इस उपहार रूप दान के बहाने क्या वह हम लोगों को स्वीकृत करना चाहता है-अपने अधीन बनाना चाहता है अथवा भीतर प्रवेश कर-हम लोगों में मिलकर परमार्थ से हमारा विध्वंस है ।।८ । असमय में पुष्पित, विकार सूचक वृक्ष से जिसप्रकार ज्ञानी जीव अत्यंत भयभीत होता है, उसी प्रकार राजा की आकस्मिक प्रसन्नता से ज्ञानी जीव अत्यंत भयभीत होता है ।।।।। मन में अन्य, वचन में अन्य और चेष्टा में अन्य, इसप्रकार की जो प्रवृत्ति स्त्री में असदाचार कहलाती है वह जिगीषु राजा में प्रशंसनीय मानी जाती है । भावार्थ-स्त्री के मन में कुछ हो, वचन में कुछ हो और चेष्टा में कुछ हो तो वह स्त्री का दुराचार कहलाता है परन्तु विजिगीषु-जीत की इच्छा रखने वाले राजा के यह सब प्रशंसनीय प्राचार कहा जाता है ।।१०। इसलिये उसके विषय में हम लोगों को क्या करना चाहिये ? यह कह कर जब राजा अपराजित चुप हो रहे तब सभासदों द्वारा नेत्र से अनुज्ञा प्राप्त कर सन्मति मंत्री इस प्रकार कहने लगा ।।११।।
नीति के सार स्वरूप नय का कथन कर आपके विश्रान्त होने पर जो कोई अन्य पुरुष कुछ कहना चाहता है वह सब आपकी ही प्रतिध्वनि होगी। भावार्थ-आप राजनीति का यथार्थ वर्णन कर चुके हैं अतः किसी अन्य मनुष्य का कथन प्रापके कथन के अनुरूप ही होगा ॥१२॥ फिर भी इस विस्तृत प्रकृत वस्तु का कुछ स्वरूप मात्र किसी तरह मेरे द्वारा कहा जाता है । भावार्थ-यद्यपि आपके कह चुकने के बाद मेरे कथन की आवश्यकता नहीं है तथापि चूकि यह वस्तु बहुत विस्तृत है इसलिये इसको कुछ स्वरूप मात्र मैं किसी तरह कहता हूं ॥१३॥ जिसने पहले ही समस्त विद्याधर राजाओं को अपने अधीन कर लिया है ऐसे उस दमितारि प्रभु के पुनरुक्त के समान पीछे चक्ररत्न प्रकट हुआ है । भावार्थ-चक्ररत्न के प्रकट होने का फल समस्त विद्याधर राजाओं को अपने अधीन करना था। परन्तु यह कार्य वह पहले ही कर चुका है अतः पश्चात् चक्ररत्न का प्रकट होना पुनरुक्त के समान है ।।१४।। बुद्धिमान राजा को पहले इसका अच्छी तरह विचार कर लेना चाहिये
१ कर्तव्यम् २ तूष्णींभवति ३ एतन्नामा मन्त्री ४ त्वयि ५ विचारार्थ मुपस्थापितस्व ६ पक्ररत्नम् ।
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