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________________ १-२३ । ८३-८५ ( ३१ ) अष्टम सर्ग विद्याधरों के राजा अमिततेज तथा राजा अशनिघोष ने विजय केवली को नमस्कार किया। इसी के बीच स्वयंप्रभा, सुतारा को लेकर आ पहुंची और केवली को नमस्कार कर बैठ गई। अमिततेज ने केवली भगवान् से धर्म का स्वरूप पूछा। केवली द्वारा रत्नत्रयरूप धर्म का संक्षिप्त वर्णन। धर्मोपदेश से संतुष्ट राजा अमिततेज ने केवली जिनेन्द्र से पूछा कि प्रशनि २४-५४ । ८५-८८ घोष ने सुतारा का हरण क्यों किया? केवली भगवान् ने कहा कि दक्षिण भरतक्षेत्र में रत्नपुर नगर है उसका राजा श्रीषेण था जो अपने इन्द्र और उपेन्द्र नामक पुत्रों से अतिशय शोभमान था। एक दिन एक तरुण स्त्री 'रक्षा करो-रक्षा करो' यह बार बार कहती हुई राजा श्रीषेण की शरण में आई। राजा के पूछने पर उसने बताया कि मेरा पति दुराचारी तथा हीनकुली है उससे मेरी रक्षा करो। मैं आपके ब्राह्मण की बेटी हूं। कपिल ने पिता को धोखा देकर मुझे विवाह लिया। इस प्रसंग में उसने अपनी सब कथा सुनाई । राजा श्रीषेण ने उस सत्यभामा नामक स्त्री को अपने अन्तःपुर में शरण दी। तदनन्तर राजा श्रीषेण ने कदाचित् आदित्य नामक मुनिराज से दानधर्म ५५-६४ । ८८-८९ का उपदेश सुना । पश्चात् दो मास का उपवास करने वाले चारण ऋद्धि के धारक अमितगति और आदित्यगति नामक दो मुनि राजों को भक्तिपूर्वक आहार दान दिया। ब्राह्मण की पुत्री सत्यभामा ने भी इस दान की अनुमोदना की। देवों ने पञ्चाश्चर्य किये । श्रीषेण के पूत्रों-इन्द्र और उपेन्द्र के बीच वसन्तसेना वेश्या के कारण युद्ध ६५-१.२ । ८६-६२ होने लगा। उसी समय एक विद्याधर ने आकाश मार्ग से नीचे उतर कर कहा कि प्रहार मत करो। यह वसन्तसेना तुम दोनों की बहिन है । इस संदर्भ में उसने वसन्तसेना के पूर्वभव का वर्णन किया । वह बोच में पाया विद्याधर मरिण कुण्डल था । उसका इन्द्र और उपेन्द्र ने बहुत आभार माना। तथा उसे सन्मान से विदाकर दोनों मुनि हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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