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________________ षोडशः सर्गः २४१ तितिक्षा मावं शौचनावं सत्यसंयमी । ब्रह्मचर्य तपस्त्यागाविन्य धर्म उच्यते ॥१२२॥ कालुष्यसमिवानेऽपि विषवाकोसनानिमिः । कानुष्यं मुनेः सद्धिस्तितिक्षति विवक्षिता ।।१२३।। जात्यावष्टमदावेशविलासः खलु मार्दवम् । शुचिभिः सर्वतो लोभाभिवृत्तिः सोचमुच्यते ॥१२४॥ अभिमाननिरासश्च योगस्यावतार्जवन् । अपि सत्सु प्रशस्तेषु साधुवाक्सत्यमुच्यते ॥१२५।। प्राण्यापरिहार: स्यात्संयमों यमिनो मतः। बासो गुरुकुले नित्य ब्रह्मचर्यमुदीर्यते ॥१२॥ परं कर्मक्षयार्थ यसप्यते तत्तपः स्मृतम् । त्यागः सुधर्मशास्त्राविविधारणनमुवाहतम् ॥१२७॥ शरोरादिकमात्मीयमनपेय . प्रवर्तनम् । निर्ममत्वं मुनेः सम्यगाकिन्यमुदाहृतम् ।।१२८॥ रूपादीनामनित्यत्वं धर्मात शरणं परम् । संसारान्न परं कष्टमेकोऽहं सुखदुःखमा ।।१२।। अन्योऽहं भूतितोऽमूतिरसुचिस्त्वेवमानमः। गुप्त्यादिःसंवरोपायः तपसा कर्मनिर्जरा ॥१३॥ सुप्रतिष्ठसमस्थित्या जगदेवमवस्थितम् । धर्मो जगवितायोच्च जिनरयमुवाहतः ॥१३॥ श्रद्धादिभ्योऽपि जीवस्य दुर्लभो बोषिरञ्जसा। इत्येतेषामनुध्यानमनुप्रेक्षाः प्रचक्षते ॥१३२॥ सदा संवरसन्मार्गाच्यवनार्य परीषहाः । निर्जरापंच सोढव्याः क्षुत्पिपासादयो वृषैः ।।१३३।। तप, त्याग, और पाकिञ्चन्य ये दश धर्म कहलाते हैं ॥१२२।। शत्रुओं के कुवचन आदि के द्वारा कलुषता के कारण रहते हुए भी मुनि को जो कलुषता उत्पन्न नहीं होती है वह सत्पुरुषों से विवक्षित क्षमा है ॥१२३।। जाति आदि आठ प्रकार के अहंकारभाव का नाश होना निश्चय से मार्दव है और लोभ से सर्वप्रकार की निवृत्ति होना निर्मल पुरुषों के द्वारा शौच धर्म कहा जाता है ।।१२४॥ अभिमान का निराकरण करना तथा योगों की कुटिलता का न होना आर्जव है । उत्तम सत्पुरुषों के साथ निर्दोष वचन बोलना सत्य कहलाता है ।।१२५॥ प्राणिघात तथा इन्द्रिय विषयों का परिहार करना मुनियों का संयम माना गया है तथा गुरुकुल में अर्थात् दीक्षाचार्य आदि के साथ सदा निवास करना ब्रह्मचर्य कहलाता है ।।१२६।। कर्मों का क्षय करने के लिये जो अत्यधिक तपा जाता है वह तप माना गया है। उत्तम धर्म तथा शास्त्र आदि का देना त्याग कहा गया है ।।१२७।। अपने शरीरादिक की अपेक्षा न कर मुनि की जो ममता रहित प्रवृत्ति है वह समीचीन पाकिञ्चन्य धर्म कहा गया है ।।१२८।। रूपादिक की अनित्यता है, धर्म से अतिरिक्त कोई दूसरा शरण नहीं है, संसार से बढ़ कर दूसरा कष्ट नहीं है, मैं अकेला ही सुख दुःख भोगता हूं, मैं मूर्ति रहित हूं तथा शरीर से भिन्न हैं, इसीप्रकार शरीर अपवित्र है, कर्मों का आस्रव हो रहा है, गुप्ति आदि संवर के उपाय हैं, तप से कर्मों की निर्जरा होती है, सुप्रतिष्ठक-मोदरा-ठौना के समान यह लोक स्थित है, जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहा हुआ यह उत्कृष्ट धर्म ही जगत् के हित के लिए है तथा जीव को परमार्थ से आत्मज्ञान आत्मानुभूति होना श्रद्धा आदि की अपेक्षा भी दुर्लभ है, इस प्रकार इन सबके बार बार चिन्तवन करने को अनुप्रेक्षा कहते हैं ।।१२६-१३२॥ विद्वज्जनों को संवर के मार्ग से च्युत नहीं होने तथा कर्मों की निर्जरा के लिए सदा क्षुधा तृषा आदि परिषह सहन करना चाहिए ॥१३३॥ १ क्षमा २ त्यागः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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