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________________ २४० श्रीशांतिनाथपुराणम् उत्सपिण्यवसपियोः समयावलिका न ताः । यासु मृत्वा न संवातमात्मना 'कालसंस्तौ ॥११॥ असंख्येयजगन्मात्रा भावाः सर्वे निरन्तरम् । जीवेनावाय मुक्ताश्च बहुशो भावसंहतो ॥११॥ नर मारक तिर्यक्ष देवेष्वपि समन्तता। मत्वा जीवेन, बात बहुमो भवतो ॥११॥ इति बन्धात्मको क्षेपः संसारः सारजितः। प्रभयानामनाविक स्याबवसातविजितः ॥१३॥ मनाविरपिमन्यानां सविरानो भवेदपम् । तत्वार्थरचयो । मास्तरमा विशोऽपरे ॥११॥ प्रधानमनिरोपकलमणः . संवरो मतः । भाणाव्यविकल्पेशविन्य तस्य कल्यते ॥११॥ क्रियाणां मोदूनां विसिविसंपरः । अल्पकर्मास्रवाममो ममते व्यासंबरः ॥१HI तिस्रोऽथ गुप्तया पच पराः समितयस्तथा । धर्मो दशक्यिो नित्यमनुप्रेक्षा विषड्विधाः ॥११॥ द्वाविंशतिविषा ज्ञेयाः सद्भिः सम्यक्परीषहाः। विजयश्च सवा तेषां चारित्राण्यथ पञ्च च ॥११८।। एतानि हेतवो ज्ञेयाः संवरस्य मुमुक्षुभिः। यत्नेन भावनीपानि भवविच्छेदनोगतः ॥११॥ गुप्तिरित्युच्यते सद्भिः सम्यग्योगनिग्रहः । मनोगुप्तिवंचोगुप्तिः कायगुप्तिरितीर्यते ॥१२०॥ समितिः सम्यगयनं ज्ञेयाः समितयश्च ताः। ईर्याभाषपणावान-निक्षेपोत्सर्गपूर्विकाः ॥१२१॥ हैं जिनमें काल परिवर्तन के बीच यह जीव मरण कर उत्पन्न नहीं हुआ हो ॥११०॥ भाव परिवर्तन में इस जीव ने असंख्यात लोक प्रमाण समस्त भावों को बहुत बार ग्रहण कर छोड़ा है ॥१११।। इसीप्रकार भवपरिवर्तन के बीच यह जीव नर नारक तिर्यञ्च और देवों में भी अनेकों बार मर कर उत्पन्न हुअा है ।।११२।। इसप्रकार यह बन्धरूप संसार सार रहित जानना चाहिये । यह संसार अभव्य जीवों का अनादि और अनन्त होता है तथा भव्यजीवों का अनादि होने पर भी सान्त होता है । तत्त्वार्थ की श्रद्धा रखने वाले जीव भव्य हैं और तत्वार्थ से द्वेष रखने वाले अभव्य हैं ॥११३-११४॥ अथानन्तर आस्रव का निरोध हो जाना ही जिसका एक लक्षण है वह संवर माना गया है । भाव संवर और द्रव्य संवर के भेद से वह दो प्रकार का कहा जाता है ॥११५॥ संसार की कारणभूत क्रियाओं की निवृत्ति होना भावसंवर है और द्रव्यकर्मों के प्रास्रव का अभाव होना द्रव्य संवर कहलाता है ॥११६।। तीन गुप्तियां, पांच उत्कृष्ट समितियां, दश धर्म, बारह अनुप्रेक्षाएं, बाईस परीषहों का जीतना, और पांच चारित्र ये संवर के हेतु हैं । संसार का विच्छेद करने के लिये उद्यत मुमुक्षु जनों को इनकी निरन्तर भावना करना चाहिये ।।११६-११९।। सम्यक् प्रकार से योगों का निग्रह करना सत्पुरुषों के द्वारा गुप्ति कही जाती है । उसके मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति ये तीन भेद कहलाते हैं ॥१२०॥ सम्यक्-प्रमादरहित प्रवृत्ति को समिति कहते हैं। इसके पांच भेद जानना चाहिये-ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और उत्सर्ग ॥१२१॥ क्षमा, मार्दव, शौच,आर्जव,सत्य, संयम, ब्रह्मचर्य, - १ कालपरिवर्तने २ भावपरिवर्तने ३ भवपरिवर्तने ४ सान्तः ५ द्वादशप्रकाराः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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