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षोडशः सर्गः
२३७ योगश्च त्रिविषो जेबो मनोवाक्कायमेवतः। शुद्धयष्टकादिभेदेन प्रमादा बहुधा मताः ।।७।। क्रोधो मानव-माया च लोभ इत्युदिताः कमात् । चतुर्विधाः कषायाश्च प्रत्येकं ते चतुर्विधाः ॥८॥ अनन्ताननुबध्नन्ति भवान्संयोजयन्ति च । इत्यनन्तानुबन्धाख्याः पूर्वे संयोजनाश्च ते ॥१॥ अप्रत्याख्यानमामान: प्रत्याख्यानाह्वयास्तथा । क्रमात्संज्वलनाख्याश्च विज्ञेयाः स्वहितैषिभिः ।।८२॥ 'चत्वारस्ते क्रमाद् घ्नन्ति सम्यक्त्वं देशसंयमम् । संयम सुविशुद्धि च कषायाः कायधारिणाम् ।।३।। दृषभूमिरजोबारिराजिमिः सदृशः सदा। क्रमाच्चतुर्विधः क्रोधो विज्ञेयो ज्ञानवेदिभिः ।।४।। शिशास्तम्मास्थिकाष्ठाबिवल्लरीभिः समो मतः । मानश्चतुर्विधो लोके चतुर्वर्गफलार्गलः ॥८॥ माया त्वक्सारमूलाविशृङ्गगोमूत्रचामरैः । तुल्या चतुःप्रकारापि सम्मार्ग परिपन्थिनी ।।६।। लाभश्च कृमिरागांशुनीलीकर्दमरात्रिभिः । समश्चतुर्विकल्पोऽपि सत्संकल्पस्य नाशकः ।।८७।। मायालोभकषायौ च क्रोधमानौ च तत्त्वतः। रागद्वेषाविति द्वन्द्व ताभ्यामात्मा कदर्थ्यते ॥८॥ प्रकृति: प्रथमो बन्धो द्वितीय: स्थितिरुच्यते। अनुभागस्तृतीया स्यात्प्रदेशस्तुर्य इष्यते ॥६॥ योगाः प्रकृतिबन्धस्य प्रदेशस्य च हेतवः । कषायाश्च परिज्ञेया विद्भिः स्थित्यनुभागयोः ।।१०।।
मन वचन काय के भेद से योग तीन प्रकार का जानना चाहिये तथा शुद्धयष्टक आदि के भेद से प्रमाद बहत प्रकार का माना गया है ।।७८-७६।। क्रोध, मान, माया और लोभ इसप्रकार क्रम से चार कषाय कही गयी हैं । ये चारों कषाय अनन्तानुबन्धी आदि के भेद से चार चार प्रकार की होती हैं ।।८।। जो अनन्तभवों तक अपना अनुबन्ध-संस्कार रखती हैं अथवा अनन्तभवों को प्राप्त कराती हैं वे अनन्तानुबन्धी अथवा अनन्तसंयोजन नामक कषाय हैं ।।८१।। अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन नामक कषाय भी आत्महित के इच्छुक मनुष्यों के द्वारा जानने योग्य हैं ॥८२।। वे अनन्तानुबन्धी आदि चार कषायें क्रम से जीवों के सम्यक्त्व, देश संयम, संयम और यथाख्यातचारित्र रूपी विशुद्धता को घातती हैं ।।८३।। ज्ञान के जानने वाले मनुष्यों को सदा क्रम से पाषाण भेद सदृश, भूमिभेद सदृश, रजोभेद सदृश और जल रेखा सदृश के भेद से चार प्रकार का क्रोध जानने योग्य है ।।८४।। लोक में चतुर्वर्ग रूपी फल को रोकने के लिए आगल के समान जो मान है वह शिलास्तम्भसम, अस्थिसम, काष्ठसम और लतासम के भेद से चार प्रकार का माना गया है ।।८।। सन्मार्ग की विरोधिनी माया भी वंशमूलसम, मेषश ङ्गसम, गोमूत्रसम और चामरसम के भेद से चार प्रकार की है ।।८६।। समीचीन संकल्प को नष्ट करने वाला लोभ भी कृमिरागसम, नीलीसम, कर्दमसम और हरिद्रासम के भेद से चार प्रकार का है ।।७।। माया और लोभ कषाय राग तया क्रोध और मान कषाय द्वेष इस प्रकार राग द्वेष का द्वन्द्व है । इन राग द्वेष के कारण ही आत्मा दुखी होता है ।।८८।।
प्रकृति बन्ध पहला. स्थितिबन्ध दूसरा, अनुभाग बन्ध तीसरा और प्रदेश बन्ध चौथा इस प्रकार बन्ध चार प्रकार का माना जाता है ।।८६।। ज्ञानीजनों को योग प्रकृति और प्रदेश बन्ध के तथा कषाय स्थिति और अनुभाग बन्ध के हेतु जानना चाहिए ॥१०॥ ज्ञानावरण के पांच भेद हैं,
१ सम्मत्तदेस संयम
२ हरिद्रा 'हल्दी' इति प्रसिद्धः ।
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