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________________ श्रीशान्तिनाथपुराणम् निःशीलवतताहेतुः कथिता मनुजायुषः । स्वभावमार्दवत्वञ्च प्रश्रयाधिकता तथा ॥६७॥ सरागसंयमः पूर्वः संयमासंयमस्तथा । अकामनिर्जराबालतपस्येतानि हेतवः ॥६॥ प्रोक्ता देवायुषस्तनः सम्यक्त्वं च तथा परम् । अन्यत्र कल्पवासिभ्यः सम्यक्त्वं च विकल्पयेत् ॥६६॥ योगानां वक्रता नाम्नो विसंवादनमप्यलम् । अशुभस्य शुभस्यापि हेतुः स्यात्तद्विपर्ययः ॥७॥ प्रय सम्यक्त्वशुद्धमाधास्तीर्षकृन्नामकर्मणः । हेतवः षोडश ज्ञेया भव्या मध्यात्मनां सदा ॥७१॥ स्वस्तुतिः परनिन्दा च सद्गुरखोच्छारनं तया । नीचर्गोत्रस्य हेतुः स्यादप्यसद्गुरगकीर्तनम् ॥७२।। उच्चर्गोवस्य हेतुः स्यात्दूर्वोक्तस्य विपर्ययः । अन्तरायस्य दानाविप्रत्यूहकरलं तथा ॥७३॥ सायोनि सुमामातुः सत्कर्माणि मनीषिणः । तानि पुण्यास्रवस्य स्युः कारणानि 'तमूभृताम् ॥७४।। मिथ्यात्वाविरती योगाः प्रमावाश्च कषायकाः । बन्धस्य हेतवो ज्ञेयास्तेषु मिथ्यात्वमुच्यते ॥७॥ सनियस्य प्रमारणं स्याक्शीतिशतमेवकम् । प्रक्रियस्य च मेदाः स्यावशोतिश्चतुरुत्तरा॥७६॥ सप्तषष्टिस्बुद्धाना मेदा वनयिकस्य च । द्वात्रिंशत्सर्वमेकत्र त्रिषष्टित्रिशताधिकम् ।।७७।। द्वादशाविरतेभेवाः प्राणीन्द्रियविकल्पतः । षड्विधानि हृषीकरिण प्राणिनश्चापि वविधाः ॥७॥ मनुष्यायु का कारण है ।।६७।। पहले कहा हुआ सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा, बाल तप और सम्यक्त्व ये सब ज्ञानी पुरुषों के द्वारा देवायु के आस्रव कहे गये हैं । विशेषता यह है कि सम्यक्त्व कल्पवासी देवों को छोड़ कर अन्य देवों का कारण नहीं है ॥६८-६९।।। योगों की वक्रता और विसंवाद अशुभ नाम कर्म का कारण है तथा इनसे विपरीत भाव शुभनाम कर्म का कारण है ॥७०॥ तदनन्तर दर्शन विशुद्धि आदि सोलह उत्तम भावनाएं भव्यजीवों को सदा तीर्थकर नाम कर्म का कारण जानना चाहिये ।।७१।। अपनी प्रशंसा करना, पर की निन्दा करना, दूसरे के विद्यमान गुणों का आच्छादन करना और अपने अविद्यमान गुणों का कथन करना नीचगोत्र कर्म का हेतु है ॥७२॥ पूर्वोक्त परिणति से विपरीत परिणति, उच्च गोत्र का हेतु है । तथा दान आदि में विघ्न करना अन्तराय कर्म का आस्रव है ।।७३।। विद्वज्जन व्रत आदि सत्कार्यों को शुभ भाव कहते हैं । ये शुभभाव प्राणियों के पुण्यास्रव के कारण होते हैं ।।७४।। मिथ्यात्व, अविरति, योग, प्रमाद और कषाय ये बन्ध के हेतु जानने योग्य हैं । इनमें मिथ्यात्व का कथन किया जाता है ।।७५॥ क्रियावादियों के एक सौ अस्सी, अक्रियावादियों के चौरासी, अज्ञानियों के सड़सठ, वैनयिकों के बत्तीस तथा सब के एकत्र मिलाकर तीन सौ प्रेसठ प्रकार का मिथ्यात्व है ।।७६-७७॥ प्राणी और इन्द्रिय के विकल्प से अविरति के बारह भेद हैं । पांच इन्द्रियों और मन को मिलाकर छह इन्द्रियां होती हैं तथा पांच स्थावर और एक त्रस के भेद से जीव भी छह प्रकार के हैं ।।७।। १ प्राणिनाम् २ अज्ञानिनाम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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