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। चतुर्दशः सर्गः
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अथ स्वस्यानुभावेन यत्नेन च दिवौकसाम्' । जिनेन्द्रो वधे शान्तिः समं भव्यमनोरः ॥१॥ प्रस्वेदो निर्मलो मूर्त्या हरिचन्दनसौरभः । क्षीरगौरा सजा युक्तः समप्रशुभलक्षणः ।।२।। प्राद्यसंहननोपेतः 'प्रथमाकृतिराजितः । सौन्दर्येरणोपमातीतोऽनन्तवीर्यः प्रियंवदः ।।३।। 'चत्वारिंशद्धनुर्वघ्नः करिणकारसमप्रभः । प्रभविष्णुः स संप्रापद् भ्राजिष्णु नवयौवनम् ॥४॥ अपारं परमैश्वर्यद्वयं तस्यैव दिद्य ते । वाचकं जनितं चान्यवसाधारणया श्रिया ॥५॥ तस्यैव विश्वसेनस्य पुत्रश्चक्रायुधाख्यया । प्रासीत्सुरेन्द्रचन्द्रोऽपि यशस्वत्यां यशस्करः ॥६॥
चतुर्दश सर्ग अथानन्तर अपने प्रभाव से और देवों के प्रयत्न से शान्ति जिनेन्द्र भव्यजीवों के मनोरथों के साथ बढ़ने लगे ॥१॥ जो शरीर से स्वेद रहित थे, निर्मल थे, हरिचन्दन के समान सुगन्धित थे, दूध के समान सफेद रुधिर से युक्त थे, समस्त शुभ लक्षणों से सहित थे, आद्यसंहनन-वज्रवृषभ नाराच संहनन से युक्त थे, समचतुरस्र संस्थान से सुशोभित थे, सौन्दर्य से अनुपम थे, अनन्त बल शाली थे, प्रियभाषी थे, चालीस धनुष ऊंचे थे, कनेर के फूल के समान प्रभा से सहित थे, और बहुत भारी सामर्थ्य से सहित थे ऐसे शान्ति जिनेन्द्र देदीप्यमान यौवन को प्राप्त हुए ॥२-४॥ दो प्रकार का पारमैश्वर्य उन्हीं का सुशोभित हो रहा था एक तो वाणी से उत्पन्न हुआ और दूसरा असाधारण लक्ष्मी से उत्पन्न हुआ ।।५।।
तदनन्तर दृढरथ का जीव जो सर्वार्थ सिद्धि में अहमिन्द्र हुना था वह भी उन्हीं विश्वसेन राजा की यशस्वती रानी से चक्रायुध नामका यशस्वी पुत्र हुआ ।।६।। शान्ति जिनेन्द्र उसे छोड़कर
३ वजवृषभनाराचसंहनमयुक्तः, ४ समचतुरस्रसंस्थानशोभितः
१ देवानाम् २ दुग्धवद् गौर रुधिरेण ५ चत्वारिंशद्धनुःप्रमाणोत्त ङ्गकायः ।
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