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________________ त्रयोदश सर्गः १८१ चन्द्रलोकमयों चन्द्रः कुर्वन् ' द्यां मानुन्ा समम् । तत्काले संगतोऽमासीज्जिनजन्मानुभावतः ॥११२।। 'अङ्गारः स्वश्च चत्रैः साम्यङ्गारमयं वियत् । विदधानोऽप्यसूच्चित्रं तत्काले लोकशान्तये ।।११३३ । घोऽपि बुध स्वस्थ प्रलयन्निव तत्क्षणे । प्रतस्थे पुरतस्तेषामानन्दभरनिर्भरः ॥ ११४ ॥ aretaranमाहात्म्य: कथं वा स्तोष्यते निनः । इतोष वाक्पतिर्ध्यायन्नायादाशङ्कया शनैः ।। ११५ ।। " सितोऽप्यवारयन्नः सितिम्ना नितरां सितः । प्रहास इव धर्मस्य तदा रेजे प्रहृष्यतः ।। ११६ ।। 'प्रशनैः शनिरप्यार स्पर्द्धयेवापरस्तदा । न हि मन्दायते कश्चित्तादृशे जगदुत्सवे ।। ११७ ।। 'स्वर्भानुरतसोसूनसवानात्मस्वां चयैः । तमालपल्लवान्दिक्षु विक्षिपन्या ता यथौ ।। ११८ ।। "केतुः केतुसहल रेग बिमलेनोपलक्षितः । बङ्गाङ्गतरङ्गौघमध्यगो वा समापतत् ॥ ११९॥ इति ते तत्पुरं प्रापुः पटहध्वनिचोदितः । समन्ताद्वयन्तरानीकंदु : प्रवेशोपशल्यकम् ॥ १२० ॥ प्रागेव कम्बु मिस्वाम्येत्य "चमरादिभिः । भावनैविहिताशेषमङ्गलं "शुभभावनैः ।। १२१ ॥ तत्कालोपनताशेषत्रैलोक्यधीप्रसाधितम् 1 प्राषे राजकुलद्वारं शक्रा : क्रमशः सुरैः ।। १२२ ।। 9 ( युग्मम् ) १ उस समय सूर्य के साथ मिला हुआ चन्द्रमा ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों जिनेन्द्र जन्म के प्रभाव से वह आकाश को चन्द्रलोक मय कर रहा हो ।। ११२ ।। उस समय मङ्गलग्रह अपनी कान्तियों के समूह से आकाश को अग्नि सहित अङ्गारों से तन्मय करता हुआ भी लोक की शान्ति के लिए हुआ था यह आश्चर्य की बात थी । ।। ११३ | | आनन्द के भार से भरा हुआ बुधग्रह भी उस समय अपने वैदुष्य को विस्तृत करते हुए के समान उन सब के आगे चल रहा था ।। ११४ || जिनकी महिमा वचन मार्ग से परे है ऐसे जिनेन्द्रदेव की स्तुति कैसे की जा सकती है ? ऐसा ध्यान करता हुआ ही मानों वृहस्पति आशङ्का से धीरे धीरे आ रहा था ।। ११५।। सफेदी से अत्यन्त सफेद शुक्रग्रह भी उस समय आकाश से नीचे उतरा था और ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों हर्षित होते हुए धर्म का प्रकृष्ट हास ही हो ।।११६।। उस समय दूसरे देवों से स्पर्द्धा होने के कारण ही मानों शनिग्रह जल्दी जल्दी चल रहा था सो ठीक ही है क्योंकि जगत् के वैसे उत्सव में कोई पुरुष मन्द नहीं होता ।। ११७ ।। उस समय राहु अलसी के फूल के समान अपनी किरणों के समूह से दिशाओं में तमाल वृक्ष के पल्लवों को विखेरता जा रहा था ॥११८॥ हजारों निर्मल पताकाओं से सहित केतुग्रह, गङ्गा की उन्नत तरङ्गों के बीच चलता हुआ सा आ रहा था ।। ११६ ।। इस प्रकार वे सब देव उस नगर को प्राप्त हुए जिसके चारों ओर समीपवर्ती प्रदेश में पढह की ध्वनि से प्रेरित व्यन्तरों की सेना से प्रवेश करना कठिन था ।। १२० ।। प्रशस्त भावना से सहित चमर आदि भवनवासी देवों ने शङ्ख ध्वनि से आकर पहले ही जिसमें समस्त माङ्गलिक कार्य सम्पन्न कर लिये थे तथा जो तत्काल उपस्थित हुयी समस्त तीन लोक सम्बन्धी लक्ष्मी से सुशोभित हो रहा था ऐसा राजभवन का द्वार इन्द्र आदि देवों के द्वारा क्रम से प्राप्त किया गया ।। १२१-१२२॥ १ आकाशम् २ मङ्गलग्रहः ३ बुधग्रहः ४ वृहस्पति । ५ शुक्रग्रहोऽपि ६ शीघ्रम् ७ आजगाम ६ केतुग्रह : १० पताकासहस्र ेण ११ चमरप्रभृतिभि: १२ भवनवासिभिः १३ शुभा भावना येषां तैः । ८ राहुः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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