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श्री शान्तिनाथपुराणम्
ध्वजः पुरः प्रवृतानी रुक्ष वत्र्त्मनि सर्वतः । तेषामपि पुरः केचित्वरमाणाः प्रतस्थिरे ।। १०१ । देवानां मुकुटाप्रस्थपद्मरागांशु मण्डलैः । तदानीं गयनं कृत्स्नं सिन्दूरितमिवाभवत् ।। १०२ ।। "वतामपि दिक्चक्रं विद्यस्मयमिवाद्य तत् । तेषां विमूवरगालोकैस्ततं चाङ्गरवां चयैः ॥ १०३॥ | विवृतैः काशमीकाशेश्छत्रैः केचिदनुहुताः । स्वैः पुण्यैरिव विस्मित्य दृश्यमाना इवाबभुः ।। १०४ ।। विमानस्थ: प्रियामन्य: पौनःपुन्यं विभूषयन् । प्रयात्प्रयाणसंघट्ट क्वचित्वश्यमाकुलम् ।। १०५ ॥ प्रस्तुतं वन्दिनां घोषं निवार्य सुहृदा समम् । परिहासाद्वदन्किचिल्लीलया कश्चिदाययौ ॥ १०६ ॥ प्रतिक्षणं परावृत्य गृह्णन्वेषपरम्पराम् । प्रापतम्नवरो वेगात्कुशीलव इवाभवत् ।। १०७३। वाहवेगवशास' कास्त धम्मिल्ल मल्लिका: । पताका इव पुष्पेषो रेजुः काश्चित्सुरस्त्रियः ॥ १०८ ॥ eferrer effect व्यावृत्य पश्यति । वपुषेवागमतिर्यग्नानुरक्तेन चेतसा ॥ १०६ ॥ कारलीलास्मितालोकैः सृजन्य इव कौमुदीम् । प्रगुर्वेहप्रभाजालजल सिक्त विगन्तराः ॥ ११०॥ इत्याद्भिः समं चेतुभ्यतिःकल्प निवासिभिः । चन्द्राद्याः सिंहनादेन व्याहूतनिजसैनिकाः ।। १११ ।।
रुक गया था परन्तु शीघ्रता करने वाले कितने ही देव उनके भी आगे चल पड़े ।। १०१ ।। उस समय देव मुकुटों के प्रभाग में स्थित पद्मराग मरिनों की किरणों के समूह से समस्त प्रकाश सिन्दूर से व्याप्त हुए के समान लाल २ हो गया था ।। १०२ ।। उन देवों के आभूषणों के प्रकाश तथा शरीर सम्बन्धी कान्ति के समूह से व्याप्त दिङ मण्डल मेघ रहित होने पर बिजलियों से तन्मय के समान देदीप्यमान हो गया था ।। १०३ ।। कितने ही देव काश के फूलों के समान लगाये हुए छत्रों से ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानों उनके अपने पुण्य ही उनके पीछे पीछे चल रहे थे। ऐसे देवों को बड़े आश्चर्य से देख रहे थे ।। १०४ ।। कोई एक देव विमान में बैठ कर जा रहा था । वह प्रिया को बार बार विभूषित करता था तथा कहीं इकट्ठी हुई भीड़ को निराकुलता पूर्वक देखता जाता था ।। १०५ ।। कोई एक देव वन्दी जनों के द्वारा प्रस्तुत जयघोष को बंद कर मित्र के साथ हास्यपूर्वक कुछ वार्तालाप करता हुलीला से जा रहा था ।। १०६ ।। कोई एक देव प्रतिक्षरण बदल बदल कर नये नये वेषों को धारण करता हुआ बड़े वेग से ना रहा था जिससे वह नट के समान जान पड़ता था ।। १०७ ।।
दूसरे देव अपनी
वाहन के वेग वश जिनकी चोटी की मालाएं कंधों पर लटकने लगी थीं ऐसी कितनी ही देवियां कामदेव की पताकाओं के समान सुशोभित हो रही थीं ।। १०८ || किसी देवी का पति मुड़ मुड़ कर दूसरी देवी की ओर देख रहा था इसलिये वह शरीर से उसके साथ जा रही थी अनुरक्त चित्त से नहीं ।। १०६ ।। शरीर सम्बन्धी प्रभा समूह रूपी जल से जिन्होंने दिशाओं के मध्य भाग को सींचा था ऐसी कितनी ही देवियां लीला पूर्वक होने वाली मन्द मुसक्यानों के प्रकाश से चांदनी को सृजती हुई के समान जा रही थीं ।। ११० ।। सिंह नाद से जिन्होंने अपने सैनिकों को बुला रक्खा था ऐसे चन्द्रमा श्रादि देव, पूर्वोक्त प्रकार से आने वाले ज्योतिष लोक के निवासी देवों के साथ चलने लगे ।।१११।।
४ कामस्य
१ निर्मेघमपि
२ नट इव ३ असे स्कन्धे त्रस्ता लम्बिता धम्मिल्ल मल्लिका: चूडासजी यासां ताः ५ पश्यति सति ६ चन्द्रिकाम् ७ आगच्छभिः ।
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