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श्रीशान्तिनाथपुराणम् अथ भव्यप्रबोधार्थ सार्वः सर्वार्थसिद्धितः । महेन्द्रो महनीद्धिरायिया'सुरभूर्भुवम् ॥३७॥ ततः पुरैव षण्मासान्वसुधारा निरन्तरम् । तत्पुरं परितो बोप्रा प्रारम्धा पतितु दिवः॥३८॥ भव्यानां मनसा साधं प्रसन्नमभवन्नभः । सौम्यं काम्यतया युक्तं जगच्च सचराचरम् ॥३६॥ अनभ्रवृष्टिसेकेन रेणुः शममगाद्भुवः । 'प्रासंपर्कतः केषां नापयाति रन:स्थितिः ॥४०॥ पवनः पावनीकुर्वन् वसुषर्षा वा सुधामयः । वात्सुरभयन्नाशा "दिव्यामोदोत्करं किरन् ॥४१॥ विधुः क्षपासु कृष्णासु क्षीयमाणोऽप्यलक्यत । चन्द्रिका विकिरन्सान्द्रां समग्र इव सर्वतः ॥४२॥ प्रभूत्पद्माकरस्येव सुखस्पर्शो विवाकरः । परं सर्वस्य लोकस्य सुखालोलकरः करैः ॥४३॥ 'प्रवकेशिमिरप्यूहे पादपः सशलाटुका। लक्ष्मीजिमावतारेषु क: स्याज्जगति निष्फलः ॥४४॥ तस्मिन्कालेऽथ शक्रस्य निदेशात्प्रीतचेतसः । ऐरामरालकेशी तां दिक्कुमार्यः प्रपेदिरे ।।४५।। तामिनिगूढरूपाभिर्यथास्थानमषिष्ठिता । 'अभिरव्यां कामपि प्राप तृणीकृतजगत्त्रया ॥४६।। सत्सौपान्तर्गते साधु शयाना शयने मृदौ । सा 'निशान्ते "निशान्तेशा स्वप्नानेतानवैक्षत ॥४७।।
के लिए पृथिवी पर आने का इच्छुक हुअा ॥३६-३७॥ तदनन्तर छह माह पहले से ही उस नगर के चारों ओर आकाश से देदीप्यमान रत्नों की धारा निरन्तर पड़ना शुरू हो गयी ॥३८॥ भव्य जीवों के मन के साथ आकाश स्वच्छ हो गया तथा चराचर पदार्थों से सहित जगत् सुन्दरता से युक्त हो गया ॥३६।। मेघ के बिना होने वाली वर्षा के सिञ्चन से पृथिवी की धूलि शान्त भाव को प्राप्त हो गयी सो ठीक ही है क्योंकि आर्द्र-सजल वस्तुओं (पक्ष में दयालुजनों) के संपर्क से किनकी रजः स्थिति-धूलि की स्थिति ( पक्ष में पाप की स्थिति ) दूर नहीं हो जाती ? ॥४०॥ पृथिवी को पवित्र करता हुआ, दिशाओं को सुगन्धित करता हुआ और दिव्य सुगन्ध के समूह को बिखेरता हुआ पवन बहने लगा ॥४१॥ चन्द्रमा कृष्ण रात्रियों में यद्यपि क्षीण होता जाता था तो भी सब ओर सघन चांदनी को बिखेरता हुआ पूर्ण के समान दिखाई देता था ॥४२॥ कमल समूह के समान समस्त जगत् को सुखी करने वाली किरणों से सूर्य अत्यन्त सुखदायक स्पर्श से सहित हो गया था ॥४३॥ वन्ध्यन फलने वाले वृक्षों ने भी नये नये फलों से सहित शोभा धारण की थी सो ठीक ही है क्योंकि जिनेन्द्र भगवान् का अवतरण होने पर जगत् में निष्फल कौन रहता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥४४।।
- तदनन्तर उस समय प्रसन्नचित्त इन्द्र की आज्ञा से दिक्कुमारी देवियां उस कुटिल केशी ऐरा देवी के पास आयीं ॥४५।। जो अन्तर्हित रूप वाली उन देवियों से यथा स्थान अधिष्ठित थी तथा जिसने तीनों जगत् को तृण के समान तुच्छ कर दिया था ऐसी वह ऐरा देवी किसी अनिर्वचनीय शोभा को प्राप्त हुयी थी ॥४६॥ जिसका पति अत्यन्त शान्त था अथवा जो गृह की स्वामिनी थी
१ भायातुमिच्छुः २ सदयजनसंसर्गात् पक्षे सजल संपर्कात् ३ धूलिस्थितिः पक्षे पापस्थिति: ४ दिव्यसौरभसमूहं ५ किरण : ६ फलरहितैरपि ७ हरितफलसहितता ८ कुटिल केशीम् ६ शोभाम् 'अभिरग्या नाम शोभयोः' इत्यमरः १० निशाया अन्ते ११ नितरां शान्त दंशोभायस्या: सा अथवा निशान्तस्य गृहस्य ईशा स्वामिनी।
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