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________________ त्रयोदशः सर्ग। १७३ 3 fat' न पर्याप्ता वर्षु कस्य निरन्तरम् । अवग्रहविमुक्तस्य सारङ्गा" हवं 'वार्मुचः ||२६|| निविदापयिषुः स्वं वा प्रतापानलतापितम् । श्रब्धिस्त्रोतोऽन्तरालेषु यस्यास्तारा 'तिसंहतिः ||३०|| तस्यैरेति महादेवी महनीयगुणस्थितिः । सद्वृत्तिरिव तच्चित्तादनपेता सदाभवत् ||३१|| या मन्दगतिसंपन्ना भद्रभावा मुगेक्षरणा । श्रप्यसंकीर्णशोभाङ्कः प्रतीकैरद्य तत्तराम् ॥३२॥ प्रन्तः प्रसन्नया वृत्या साधुभूयमनारतम् । यया विधृतमित्येतदत्यद्भुतमभूद् भुवि ।। ३३॥ यस्याः कान्त्याभिभूतेव पद्मा पद्माकरेऽवसत् । तत्पावपल्लवच्छायां सोप्यधत्तेव तद्भूयात् ||३४|| तया १० सत्यरतः सत्या समं शमधनं सताम् । स धर्मार्थाविरोधेन प्रकामं काममन्वभूत् ||३५|| कुरून्कुरुपतावेवं शासपूजितशासने I तस्मिन्त्रे लावनोपान्तभ्रान्तविश्रान्तसैनिके ॥ ३६ ॥ कामीजनों के निवास स्थानों ( पक्ष में पाताल लोक ) में भ्रमण करती श्री तथापि वह लोक में निष्कलङ्क निर्दोष ( पक्ष में उज्ज्वल ) ही रहती थी ||२८|| जिस प्रकार वृष्टि के प्रतिबन्ध से रहित अर्थात् निरन्तर वर्षा करने वाले मेघ के लिये पर्याप्त चातक नहीं मिलते हैं उसी प्रकार निरन्तर दान वर्षा करने वाले जिस राजा के लिए पर्याप्त याचक नहीं मिलते थे ||२६|| जिसके प्रताप रूपी अग्नि से संतप्त अपने आप को शान्त करने के लिए इच्छुक हुए के समान शत्रुओं का समूह समुद्रप्रवाहों के बीच रहने लगे थे । भावार्थ - इस राजा के शत्रु भागकर समुद्रों के बीच में स्थित टापुत्रों पर रहने लगे थे जिससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानों राजा की प्रतापाग्नि से संतप्त अपने आपको शान्त करने के लिये ही वहां रहने लगे हों ।। ३० ।। उस राजा की श्रेष्ठ गुणों के सद्भाव से सहित एरा नाम की महारानी थी जो सद्वृत्ति के समान सदा उसके चित्त में समायी रहती थी उससे कभी अलग नहीं होती थी ।। ३१ ।। मन्दगति से सहित, भद्रपरिणामों से युक्त तथा मृग के समान नेत्रों से सुशोभित जो रानी पृथक् पृथक् विशाल शोभा से संपन्न अवयवों से अत्यधिक सुशोभित हो रही थी ॥ ३२ ॥ | जिस रानी के द्वारा अन्तःकरण की स्वच्छ वृत्ति से सदा सज्जनता धारण की गयी थी, पृथिवी पर यह एक बड़ा प्राश्चर्य या ||३३|| जिस ऐरा की कान्ति से पराभूत होकर ही मानों लक्ष्मी पद्माकर-कमल समूह में निवास करने लगी थी और वह पद्माकर भी उसके भय से ही मानों उसके चरण पल्लवों की छाया -- कान्ति को धारण कर रहा था ।।३४।। जो सत्यभाषण में तत्पर रहता था तथा सत्पुरुषों के प्रशमधन रूप था ऐसा राजा विश्वसेन उस पतिव्रता रानी के साथ धर्म और अर्थ का विरोध न करता हुआ इच्छानुसार काम सुख का उपभोग करता था ||३५|| इस प्रकार जिनका शासन अत्यन्त बलिष्ठ था और जिनके सैनिक समुद्र के तटवर्ती वनों में भ्रमण कर विश्राम करते थे ऐसे कुरुपति राजा विश्वसेन जब कुरुदेश का शासन कर रहे थे तब सर्वहितकारी तथा उत्तम ऋद्धियों का धारक महेन्द्र ( राजा मेघरथ का जीव) भव्यजीवों को संबोधने ६ मेघस्य १ याचका: २ प्रचुरा: ७ शान्तं संताप रहितं कर्तुमिच्छुः १३ वर्ष रणशीलस्य - दानशीलस्य शत्रुसमूहः Jain Education International ४ वृष्टिप्रतिबन्ध रहितस्य ५ चातका इव ६ लक्ष्मी: १० सत्ये रतः सत्य रतः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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