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द्वादशः सर्गः
१६७ नाकनागः पुरारुह्य ज्यायसा यः प्रसाधितः । प्राररोह तमेवा सौ तद्गुणाभ्यसनादिव ॥१६८।।
शार्दूलविक्रीडितम् लक्ष्मी बिभ्रदपि प्रकामसुमनी 'मुक्तावातच तिः
शुद्धात्मापि महेन्द्रतःप्रति तदा निर्भासमानावधिः । लीलोद्भासितमोरबस्मितिरपि स्यक्तालिकेलिकमो
नाम्ना तत्र सुरेन्द्रचन्द्र इति स ख्यातोऽहमिन्द्रोऽभवत् ॥१६६।। भास्वद्भूषण पपरागकिरसम्याजेन तो सर्वतो
रागेणेव निराकृतेन मनसः संसेव्यमानौ बहिः । सम्यक्त्वस्य च संपदा विमलया प्रीतावभूतामुमो
__बोधेनावधिना युतौ शमगुणालंकारिणा हारिणाः ॥१७०॥ इत्यसगळविकृतो मानिनुहाणे मेघरमस्य सर्वासिद्धिगमनो नाम
** द्वादशः सर्गः
भावार्थ-जिस सर्वार्थ सिद्धि विमान में मेघरथ उत्पन्न हुए थे उसी सर्वार्थ सिद्धि विमान में दृढ़रथ भी उत्पन्न हुए ॥१६८।।
जो अत्यन्त सुन्दर शोभा को धारण करते हुए भी निर्मल कान्ति से रहित थे ( पक्ष में मोती के समान निर्मल कान्ति वाले थे), शुद्धात्मा-विरक्त हृदय होकर भी मेघरथ के जीव महेन्द्र के प्रति अवधि ज्ञान को प्रकाशमान करने वाले थे तथा क्रीडा कमल की स्थिति को धारण करने वाले होकर भी भ्रमरों की क्रीड़ा से रहित थे ऐसे सुरेन्द्रचन्द्र इस नाम से प्रसिद्ध अहमिन्द्र हुए ॥१६९।। वे दोनों अहमिन्द्र देदीप्यमान आभूषणों में संलग्न पद्मराग मणियों की किरणों के बहाने ऐसे जान पड़ते थे मानों मन से निकाले हुए राग के द्वारा ही बाहर सब ओर से सेवित हो रहे हों। साथ ही सम्यक्त्व की निर्मल संपदा से प्रसन्न थे तथा प्रशमगुण से अलंकृत मनोहर अवधि ज्ञान से सहित थे ॥१७॥
इसप्रकार महाकवि असग द्वारा विरचित शान्तिपुराण में मेघरथ के सर्वार्थसिद्धि गमन का वर्णन करने वाला बारहवां सर्ग समाप्त हुआ ॥१२।।
१ मुक्ता-त्यक्ता आवदात द्य तिः निर्मलकान्तिपेन सः, पक्षे मुक्ता वत् मौक्तिकवत् अवदाता-उज्ज्वला. तिर्यस्य सः २ मनोहरेण ।
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