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________________ १३८ श्रीशान्तिनाथपुराणम् प्रस्त्ययोध्यापुरी वास्ये जम्बूद्वीपस्य मारते । भूषयन्ती स्वकान्त्याय देशानुत्तरकोशसान् ॥२८॥ अशिषतां पुरी राजा राजकार्यविचक्षणः । निजितोमयशत्रुत्वात्ल्यात: शत्रुखयाल्यया ॥२६॥ तद्घोषाधिपते?षे' नन्विमित्रस्य विस्तृते। महिषौ तौ महीयांसावमूतामिमसनिमौ ॥३०॥ युध्यमानी पुरो राज्ञो मृत्वा तत्रैव लाववी । मूत्वा भूयोऽपि युद्ध'न हतः स्मान्योन्यमन्यदा ॥३१॥ तावेतो "विकिरौ जातौ ताम्र चूडाविहोखतौ। पुरातन्या क्रुधा बेरमाभ्यामेवें प्रतन्यते ॥३२॥ संसारे संसरन्त्येवं :कषायकलुषोकृताः । प्राददानास्त्यजन्तोऽपि देहिनो बेहपखरम् ॥३३॥ समरिचमहतुका प्रयोऽयं शृणुतानयोः। भव्या व्योमचरेशाम्यां गूढान्या विहितस्ततः ॥३४॥ बोपेऽस्मिन् भारतान्तःस्थे राजताद्रौ विराजिते । पुरं हिरण्यनाभाल्य मुदग्भागकभूषणम् ॥३५। गोप्ता गरुडवेगाख्यो 'गुप्तमूलबलो नृपा । नगरस्याभवत्तस्य 'नगराज इवोन्नतः ॥३६॥ जाता धृतिमती तस्य तिषेणाभिधा प्रिया। अजायेतामुमो पुत्रो तयोरय' नयान्वितो ॥३७॥ पारव्यया चन्द्रतिलक: कुलस्य तिलकोपमः । तयोायान्कनिष्ठोऽपि नभस्तिलक इत्यभूत् ॥३८॥ ___ अथानन्तर जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में अपनी कान्ति से उत्तर कोशल देश को विभूषित करने वाली अयोध्या नगरी है ॥२८॥ राज कार्य में निपुण तथा अन्तरङ्ग बहिरङ्ग शत्रुओं को जीत लेने के कारण शत्रुञ्जय नाम से प्रसिद्ध राजा उस अयोध्या नगरी का शासन करता था ॥२६॥ उसी अयोध्या में अहीरों का स्वामी नन्दिमित्र रहता था। उसकी विस्तृत बस्ती में वे दोनों, हाथियों के समान विशाल काय भैंसा हुए ॥३०॥ वे भैंसे राजा के आगे युद्ध करते हुए मरे और मर कर उसी अयोध्या में मेंढ़ा हुए । मेंढा पर्याय में भी दोनों युद्ध द्वारा एक दूसरे को मार कर मरे ।।३१।। अब ये मुर्गा नामके उद्दण्ड पक्षी हुए हैं तथा पूर्वभव सम्बन्धी क्रोध के कारण इनके द्वारा इस प्रकार वैर बढ़ाया जा रहा है ।।३२।। इसप्रकार कषाय से कलुषता को प्राप्त हुए जीव शरीर रूपी पीजडा को ग्रहण करते और छोडते हए संसार में भ्रमण करते रहते हैं ॥३३॥ इनके न थकने का कारण भी सुनने के योग्य है ! अहो भव्यजनों ! सुनो । यह कारण छिपे हुए विद्याधर राजाओं के द्वारा विस्तृत किया गया है ।।३४।। इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में स्थित शोभायमान विजयाध पर्वत पर उत्तर श्रेणी के अद्वितीय आभूषण स्वरूप हिरण्यनाभ नामका नगर है ।।३५।। जिसका मंत्री आदि मूल वर्ग और सेनाका समूह सुरक्षित था तथा सुमेरु के समान उन्नत ( उदार ) था ऐसा गरुड़वेग नामका राजा उस नगर का रक्षक था ॥३६॥ उसकी धैर्य से युक्त धृतिषेरणा नामकी स्त्री थी। उन दोनों के भाग्य और नयविज्ञान से सहित दो पुत्र हुए ॥३७।। उनमें बड़ा पुत्र चन्द्रतिलक नामका था जो कुल के तिलक के समान था तथा छोटा पुत्र नभस्तिलक था ॥३८।। वे एक बार अपनी इच्छा से फूले हुए नमेरु वृक्षों - १ आभीर वसतिकायां २ हस्तिसदृशौ ३ तो अवी इतिच्छेदः अवी मेषी ४ पक्षिणी ५ कुक्कुटौ ६ सुशोभिते ७ उत्तरदेण्यलंकारभूतम् ८ मूलं मन्न्यादिवर्ग:, बल सैन्यं तयोर्द्वन्द्वः गुप्ते सुरक्षिते मूल बले यस्य सः ९ सुमेरुरिव १० अया शुभावहो विधिः, नयो नीतिः, ताम्यां सहिती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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