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________________ एकादशः सर्ग: १३७ तो धर्मार्थाविरोधेन सुखानि निरविक्षताम' । सस्नेहदयितापाङ्गङ्गालीढमुखाम्बुजो ॥१७॥ राजा यहच्छवाहालीद्विहरन्ससुतोऽन्यदा । युध्यमामौ सभामध्ये कुकबाकू कृपात्मकः ॥१८॥ उत्पत्योत्पत्यवेगेव प्रहरम्तो परस्परम् । पाराभ्यां च बशन्तो तो युयुधाते क्रुधा चिरम् ॥१६॥ महीयसापि कालेन तो जेतुमितरेतरम्। 'प्रप्रभू प्रभुरालोक्य स्मित्वेत्याह सुतोत्तमम् ॥२०॥ किञ्चिद्वत्सानयोर वेरिस जन्मान्तरागतम् । पक्षिणोरथमत्वं च तद्यथावत्त्वयोच्यताम् ॥२१॥ इति जिज्ञासमानेन पित्रा तबोधमजसा । पृष्टो मेघरयो वक्तु क्रमेणेत्थं प्रचक्रमे ॥२२॥ अथास्य भारते 'वास्बे बम्यूटीपस्य विद्यते । पुरं रत्मपुरं नाम्ना प्रषिस्ना प्रथितं परमार तत्र शाकटिकावेताबभूतां भूतनिर्दयौ । नाम्नवैकस्तयोर्धन्यो मनकोऽन्योऽप्यभवधीः ॥२४॥ प्रन्यदा श्रीनदीतीर्थसंघट्ट 'धुर्यवट्टनात् । अध्नतुस्तावनिम्नेन! ऋषा निघ्नौ"परस्परम् ॥२५॥ जाम्बूनदापगातीरे जम्बूजम्बीरराजिते। जङ्गमोत्तुङ्गशलाभौ मातङ्गौ तौ बभूवतुः ॥२६॥ प्रवषिष्ठामधान्योन्यं तौ तत्रापि मतङ्गजो' । परस्पररबाघातमिन्ननिर्याण' मस्तको ॥२७॥ स्नेह युक्त प्रियाओं के कटाक्ष रूपी भ्रमरों से व्याप्त थे ऐसे वे दोनों भाई धर्म और अर्थ पुरुषार्थ का विरोध न करते हुए सुखों का उपभोग करते थे ।।१७।। किसी समय दयावन्त राजा घनरथ स्वेच्छा से क्रीड़ा करते हुए पुत्रों के साथ सभा के बीच बैठे हुए थे । वहां उन्होंने युद्ध करते हुए दो मुर्गों को देखा । वे मुर्गे वेग से उछल उछल कर परस्पर प्रहार कर रहे थे, चोंचों से एक दूसरे को काटते थे। इस तरह वे क्रोध से चिर काल तक यद्ध करते रहे परन्तु बहुत समय में भी एक दूसरे को जीतने के लिये जब समर्थ न हो सके तब राजा ने हंसकर बडे पत्र से कहा ॥१८-२०॥ हे वत्स! इन पक्षियों के जन्मान्तर से आये हए वैर को तथा इनके न थकने के कारण को कुछ जानते हो तो यथावत्-जैसा का तैसा कहो ॥२१॥ इस प्रकार उन पक्षियों के यथार्थ ज्ञान को जानने की इच्छा करने वाले पिता के द्वारा पूछा गया मेघरथ क्रम से इस प्रकार कहने के लिये उद्यत हुआ ॥२२॥ इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में विस्तार से अत्यन्त प्रसिद्ध रत्नपुर नामका नगर है ।।२३।। वहां ये दोनों, प्राणियों के साथ निर्दयता का व्यवहार करने वाले गाड़ीवान् थे। उनमें से एक का नाम धन्य था जो नाम मात्र से धन्य था और दूसरे का नाम भद्रक था परन्तु वह भी अभद्र बुद्धि था ॥२४॥ किसी एक समय श्रीनदी के घाट पर बैलों की टक्कर हो जाने से दोनों को क्रोध आ गया और उसके कारण दोनों ने एक दूसरे को मार डाला ॥२५।। पश्चात् वे जामुन और जम्बीर के वृक्षों से सुशोभित जाम्बूनद नामक नदी के तीर पर चलते फिरते ऊंचे पर्वतों के समान आभा वाले हाथी हुए ॥२६॥ वहां भी परस्पर दांतों के प्रहार से जिनका आंखों का समीपवर्ती प्रदेश तथा मस्तक विदीर्ण हो गया था ऐसे उन दोनों हाथियों ने परस्पर एक दूसरे को मारा ॥२७॥ १ भुझाते स्म २ कुक्कुटौ ३ चचूभ्याम् ४ असमषों ५ ज्ञातुमिच्छता ६ क्षेत्रे ७ विस्तारण ८ भूतेषु प्राणिषु निर्दयो दयारहितो ९धुरं वहति धुर्यः वृषभः तस्य घट्टनात् तास्मात् १० स्वतन्त्रेण ११ अधीनी १२ हस्तिनी १३ हस्तिनी १४ अपाङ्गसमीपप्रदेश: । १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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