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________________ दशमः सर्गः १२१ प्रसाधितनतं तस्य त्रैलोक्यमनि प्रमो: । 'नीरजी भूतवपुषो निवासार्थमिव श्रियः ॥७॥ वासवः प्रतिहारोऽद्धनदः किङ्करः प्रभोः । "यस्थानवद्यमेश्वयं 'प्रातिहार्याष्टका स्थितम् ||८|| अन्तर्भू तिबहिन तिविभागावस्थितां स्थितिम् । तस्य तत्समये नेशे वक्तुमप्यद्भुतश्रियः ॥eit इत्यावेद्य प्रियं राज्ञे व्यसनपालकः 1 ग्रानन्दभरसंभूतबाष्पव्याकुलचक्षुषे ॥१०॥ प्रहतिभराद्वोदु भूषणानि भुवः पतिः । प्रशतो वादिशतस्मै स्वनद्धानि विमुच्य सः ॥ ११ ॥ विभूतिर्धर्ममूलेति चकोत्पत्तावनुत्सुकः । प्रायातीर्थकृतो नन्तु पादौ तद्भूतिकाम्यया ॥१२॥ मेने तत्पदमालोक्य स त्रैलोक्यमिवापरम् । नरामरोरगा की 'पर्याप्तं चक्षुषः फलम् ||१३|| स वीक्ष्यानन्तरं दूराद्भक्त्याम्यर्च्य प्रयोक्तया । पुनरुक्तमिवार्चीत प्राप्य माथं सपर्यया ॥ १४ ॥ "स्तावं स्तावं "परीत्येशं स्वं निवेद्य स्वयंभुवम् । ववन्दे भूपतिर्भू यो भक्तिभाराविवानतः ।। १५॥ पर्युपास्य तमीशानं श्रुत्वा श्रयं ततश्विरम् । प्रन्तस्तत्परमैश्वमं ध्यायन्नावात्पुरं प्रभुः ॥१६॥ गया है ( पक्ष में पाप रूपी धूली से रहित हो गया है ) ऐसे उन प्रभु के लिये तीनों लोक स्वयं भूत हो गये हैं || ७ || जिनका निर्दोष ऐश्वर्य आठ प्रातिहार्यो से सहित है उन प्रभु का इन्द्र तो द्वारपाल हो गया है और कुबेर किङ्कर - आज्ञाकारी सेवक बन गया है ।। ८ ।। उस समय अद्भ ुत लक्ष्मी से युक्त उन भगवान् की अन्तरङ्ग सम्पत्ति और बहिरङ्ग सम्पत्ति के विभाग से स्थित जो स्थिति है उसे कहने के लिये भी मैं समर्थ नहीं हूं ॥ ६ ॥ आनन्द के भार से उत्पन्न प्रांसुत्रों से जिसके नेत्र व्याकुल हो रहे थे ऐसे राजा के लिये इस प्रकार का प्रिय समाचार कह कर वन पालक चुप हो गया ।। १० ।। राजा ने उसे अपने शरीर पर स्थित प्राभूषरण उतार कर दे दिये जिससे ऐसा जान पड़ता था मानों बहुत भारी हर्ष के भार से वह उन प्राभूषणों को धारण करने में असमर्थ हो गया था ।।११।। विभूति तो धर्ममूलक है इसलिये चक्र की उत्पत्ति में उसे कोई उत्सुकता उत्पन्न नहीं हुई थी । वह उनकी विभूति प्राप्त करने की इच्छा से तीर्थंकर के चरणों को नमस्कार करने के लिये गया ।। १२ ।। मनुष्य देव और असुरों से व्याप्त दूसरे त्रैलोक्य के समान उनके चरणों का अवलोकन कर राजा ने ऐसा मानों मैंने चक्षु का फल परिपूर्ण से प्राप्त कर लिया है || १३|| तदनन्तर दूर से ही दर्शन कर उसने यथोक्त भक्ति के द्वारा उनकी पूजा की । पश्चात् उन प्रभु के पास जाकर पुनरुक्त के समान सामग्री के द्वारा पूजा की || १४ || जो बहुत भारी भक्ति के भार से मानों नम्रीभूत हो रहा था ऐसे राजा ने बार बार स्तुति कर, प्रदक्षिणा देकर तथा अपने आपका निवेदन कर उन स्वयंभु भगवान् की वन्दना की—उन्हें नमस्कार किया ।। १५ ।। इस प्रकार उन तीर्थंकर परमदेव की उपासना कर तथा श्रवण करने योग्य उपदेश को चिरकाल तक सुनकर राजा हृदय में उनके परम ऐश्वर्य का ध्यान करता हुआ नगर में वापिस आया ।। १६ ।। १ नीरजीभूतं कमलीभूतं वपुः शरीरं यस्य तस्य २ इन्द्रः ३ द्वारपाल: निर्दोषमिति यावत् ६ अशोकवृक्षादिप्रातिहार्याष्टकसहितम् ७ स्वशरीरधृतानि ९ पूजया १० स्तुत्वा स्तुत्वा ११ परिक्रम्य । १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only ४ कुबेर: ५ अवद्यरहितम्, परितः समन्तात् आतप्राप्तम् www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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