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________________ श्रीशांतिनाथपुराणम् अन्तर्भावादशेषाणां तल्लक्षणजुषां धियाम् । तत्तद्ग्राहकतापोहे 'मानान्तरमिराकृतिः ।। ११५ ।। तन्मूलः परलोकोऽपि दुरालीको विवेकिनाम् । तस्मान्मुमुक्षुभिः पूर्वमात्मासाध्यः प्रयत्नतः ।।११६ ।। तस्मै जलाञ्जलि वत्वा धीमद्भिस्त्यज्यतामतः । परलोके मतिः कामे कार्यार्थे तन्निबन्धने ॥ ११७ ॥ नैरात्म्यं प्रतिपाद्यति तस्मिन्नवसिते बुधे । प्रगात् सभ्यैः समं भूपो जीवास्तित्वे स संशयम् ।। ११८ ।। वचस्तस्यानुमन्यापि सत्यमित्युदयात्क्षणम् । संमिश्रप्रकृतेर्भू पश्चोद्य चेति निराकरोत् ॥ ११६॥ Faristant ह्यात्मा स्वोपात्त तनुमात्रकः । "स्थित्युत्पत्तिविपत्त्यात्मा स्वसंवेदननिश्चितः ॥ १२० ।। "उन्मीलिताक्षयुगल । सकलो विमलाशयः । प्रत्यक्षेणाहमद्राक्षममुमत्रेति चोदयत् ।। १२१ ॥ प्रध्यक्षयन्तमात्मार्थज्ञानेनात्मानमात्मवान् । श्रात्मानं को निराकुर्याद्वीक्षमाणो विचक्षणः ।। १२२ ।। ११४ तो दूसरा श्रागम उसका नास्तित्व सिद्ध करता है इसलिये प्रात्मा का अस्तित्व सिद्ध करने में आगम प्रमारण की क्षमता नहीं है ।। ११४ ।। आत्मा के लक्षण का निरूपण करने वाले समस्त ज्ञानों का उनकी आत्मग्राहकता का निराकरण करने वाले प्रमाण में ही अन्तर्भाव हो जाता है इसलिये अन्य प्रमाणों का निराकरण स्वयं हो जाता है । भावार्थ - आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करने में प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाण की असमर्थता ऊपर बतायी जा चुकी है इनके अतिरिक्त जो उपमान, प्रर्थापत्ति तथा अभाव आदि प्रमाण हैं उनका अन्तर्भाव इन्हीं प्रमाणों में हो जाता है ।। ११५।। जब आत्मा का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं है तब तन्मूलक परलोक भी विवेकी जनों के लिये कठिनाई से देखने योग्यदुःसाध्य हो जाता है । इसलिये मुमुक्षुजनों को सबसे पहले प्रयत्न पूर्वक आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करना चाहिये ।। ११६ ।। तात्पर्य यह है कि बुद्धिमान् जनों को परलोक के लिये जलाञ्जलि देकर परलोक, तत्सम्बन्धी कामना, तथा कार्यरूप प्रयोजन से युक्त परलोक सम्बन्धी कारण में अपनी बुद्धि छोड़ देनी चाहिये । भावार्थ - आत्मा का अस्तित्व सिद्ध न होने पर परलोक का अस्तित्व स्वयं समाप्त हो जाता है और जब परलोक का अस्तित्व स्वयं समाप्त हो जाता है तब उसकी प्राप्ति का लक्ष्य रखना तथा तदनुकूल साधन सामग्री की योजना में संलग्न रहना व्यर्थ है ।। ११७ ॥ इस प्रकार नैरात्म्यवाद का प्रतिपादन कर जब वह विद्वान् चुप हो गया तब सभासदों के साथ राजा भी आत्मा के अस्तित्व में संशय को प्राप्त हो गया ।। ११८ ।। सम्यङ मिथ्यात्व के उदय से राजा ने यद्यपि क्षणभर के लिये 'आपका कहना सत्य है' यह कह कर उसके वचनों की अनुमोदना की परन्तु उसके प्रश्न का इस प्रकार निराकरण किया ॥ ११६॥ निश्चय से आत्मा स्व पर प्रकाशक है, अपने द्वारा गृहीत शरीर प्रमाण है, उत्पाद व्यय और ध्रौव्यरूप है तथा स्वसंवेदन से निश्चित है ।। १२० ।। जिसके नेत्रयुगल खुले हुए हैं, जो वस्तुतत्त्व को ग्रहण करने की कला से युक्त है तथा जिसका अभिप्राय निर्मल है ऐसे मैंने इस जगत् में उस आत्मा को प्रत्यक्ष देखा है- स्वयं उसका अनुभव किया है यह भी राजा ने कहा ।। १२१ । । ' मैं आत्मद्रव्य हूं' इस प्रकार के ज्ञान से जो ग्रात्मा का स्वानुभव प्रत्यक्ष कर रहा है ऐसे आत्मा का कौन आत्मज्ञ १ अन्य प्रमाणनिराकरणम् २ दुर्दृश्य: ३ प्रश्नम् ४ स्वगृहीत शरीरप्रमाण: ५ धोब्योत्पाद व्यययुक्तः ६ उद्घाटित नयनयुग्मः ७ विद्वान् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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