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________________ नवमः सर्गः नप्ता बजायपत्यासीत्सहलायुधसंभवः । विभ्रत्कनकशास्यास्यामिति प्रशमसंयुतः ॥१०॥ अथान्यदा तवास्थानी वदान्यजनसंकुलाम्। कश्चिद्विवदिषु'विद्वानिवेद्य स्वं समासबत् ॥१०६।। मन्तः स्तब्धोऽपि मानेन प्राणंसीस महीपतिम् । तस्यातिभास्करं धाम राज्ञः सोदुमपारयन् ॥१०७।। अप्राकृता कृतेस्तस्य निरविक्षदथासनम् । बज्रायुधः स्वहस्तेन वपुष्मानक पूज्यते ॥१०८।। कथाप्रसङ्गतः प्राप्य प्रस्तावमय भूपतेः । स च संस्कारिणी वाणीमिति वक्तु प्रचक्रमे ॥१०॥ राजन जिज्ञासुरात्मानममेयात्मानमागमम् । भूतं भव्यं भवन्तं च विद्वान्सं त्वामहं विभुम् ॥११०॥ कश्चिदात्मा ५निरात्मेति प्रत्यपादि महात्मभिः । तत्सत्तानुग्रहासक्तप्रमाणविनिवृत्तिता ॥११॥ तथा ह्यध्यक्षमात्मान वीक्षितुं न अमं विभो । परोक्षात्मेक्षणे तस्यानध्यक्षत्वप्रसङ्गतः ॥११२।। नानुमापि तमात्मानमवगन्तुं प्रभुः प्रभो । लिङ्गलिङ्गयविनाभावसंगत्यङ्गप्रसङ्गिनी॥११३।। सत्प्रत्यागमसद्भावनिरस्तान्वयसत्यतः । तत्स्वभावप्रबोधाय धीमतां नागमा क्षमः ॥११४॥ सहस्रायुध से उत्पन्न हुआ वज्रायुध का एक पोता था जो कनकशान्ति इस नाम को धारण करता था और प्रशमगुण से सहित था ।।१०।। तदनन्तर विवाद करने की इच्छा रखने वाला कोई एक विद्वान् किसी समय अपने आप की सूचना देकर उदार मनुष्यों से परिपूर्ण वज्रायुध की राजसभा में आया ।।१०६॥ मान के कारण भीतर कठोर होने पर भी उसने राजा को प्रणाम किया। उससे वह ऐसा जान पड़ता था मानों राजा के अतिशय शोभायमान तेज को सहन करने के लिये वह समर्थ नहीं हो रहा था ।।१०७।। असाधारण आकृति को धारण करने वाले उस विद्वान् को राजा वज्रायुध ने अपने हाथ से आसन का निर्देश किया सो ठीक ही है क्योंकि विशिष्ट शरीर को धारण करने वाला मनुष्य किसके द्वारा नहीं पूजा जाता? ॥१०८।। तदनन्तर कथा के प्रसङ्ग से राजा का प्रस्ताव प्राप्त कर वह इस प्रकार की संस्कार पूर्ण वाणी को कहने के लिये उद्यत हुआ ॥१०६॥ हे राजन् ! अपरिमित स्वरूपयुक्त भूत भावी और वर्तमान प्रात्मा को जानने की इच्छा रखता हा मैं आप जैसे सामर्थ्य शाली विद्वान के पास आया हूं ।।११०।। आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने में संलग्न प्रमाणों का अभाव होने से आत्मा निरात्म रूप है-अभाव रूप है ऐसा कितने ही महात्माओं ने प्रतिपादन किया है ।।१११॥ हे विभो ! यह स्पष्ट ही है कि प्रत्यक्ष प्रमाण आत्मा को देखने के लिये समर्थ नहीं है क्योंकि परोक्ष प्रात्मा के देखने में उसकी अप्रत्यक्षता का प्रसङ्ग आता है ॥११२।। हे प्रभो ! लिङ्ग और लिङ्गी-साधन और साध्य के अविनाभाव रूप कारण से उत्पन्न होने वाला अनुमान प्रमारण भी आत्मा को जानने के लिये समर्थ नहीं है ॥११३॥ विरुद्ध आगम के सद्भाव से अन्वय की सत्यता निरस्त हो जाने के कारण बुद्धिमान् पुरुषों के लिये आगम भी आत्म स्वभाव का ज्ञान कराने में समर्थ नहीं है । भावार्थ-एक आगम अात्मा का अस्तित्व सिद्ध करता है १ विवादं कर्तुमिच्छु: २ गर्वयुक्तोऽपि ३ असाधारणाकृतेः ४ सुन्दरशरीरयुक्तः ५ स्वरूपरहित। ६ साध्यसाधन । १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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