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था क्षायिक सम्यग्दर्शन को धारण करने वाला अविरतादि चारगुणस्थानों वाला मनुष्य तीर्थङ्कर प्रकृति के बन्ध का प्रारम्भ करता है । परमार्थतः सम्यग्दर्शन, तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध का कारण नहीं है उसके काल में पाया जानेवाला लोक कल्याणकारी शुभ राग ही बन्ध का कारण है परन्तु वह शुभ राग सम्यक्त्व के काल में ही होता है अतः उपचार से उसे बन्ध का कारण कहा गया है ।
तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कराने वाली सोलह भावनाओं की चर्चा इसी प्रस्तावना में आगे कर रहे हैं । शान्तिनाथ पुराण में प्रसङ्गोपात्त जैन सिद्धान्त का वर्णन तत्वार्थसूत्र और सर्वार्थ सिद्धि के आधार पर किया गया है। प्रमुख रूप से इसके पन्द्रहवें और सोलहवें सर्ग में जैन सिद्धान्त का वर्णन विस्तार से हुआ है । प्रथमानुयोग की शैली है, कि उसमें प्रकररणानुसार सैद्धान्तिक वर्णन का समावेश किया जाता है, प्रमेय की अपेक्षा जिनसेनाचार्य का हरिवंश पुराण प्रसिद्ध है उसमें उन्होंने क्या लोकानुयोग, क्या सिद्धान्त, क्या इतिहास - सभी विषयों का अच्छा समावेश किया है । शान्तिनाथ पुराण में भी उसी शैली को अपनाया गया है जिससे यह न केवल कथा ग्रन्थ रह गया है किन्तु सैद्धान्तिक ग्रन्थ भी हो गया है ।
प्रसङ्गवश इसमें अनेक सुभाषितों का संग्रह है । अर्थान्तरन्यास या अप्रस्तुत प्रशंसा के रूप में कवि ने संग्रहणीय सुभाषितों का संकलन किया है । ये सुभाषित अन्य कवियों के नहीं किन्तु असग कवि के द्वारा ही विरचित होने से मूल ग्रन्थ के अङ्ग हैं । एक दो स्थलों पर दार्शनिक चर्चा भी की गई है। दान के प्रकरण में दाता देय तथा पात्र का विशद व्याख्यान किया गया है । इन सुभाषितों का सर्गवार संचय प्रस्तावना के अनन्तर स्वतन्त्र स्तम्भ में दिया जा रहा है ।
कवि का संस्कृत भाषा पर पूर्ण अधिकार है अतः कहीं भी भाषा शैथिल्य का दर्शन नहीं होता । अलंकार की विच्छित्ति तथा रीति को रसानुकूलता का पूर्ण ध्यान रखा गया है । द्वयर्थ क श्लोकों में श्लेष का अच्छा प्रयोग हुआ है । ऐसे स्थलों पर मैंने हिन्दी अनुवाद के अतिरिक्त संस्कृत टिप्पण भी लगा दिया है क्योंकि मात्र हिन्दी अनुवाद से कवि के वैदुष्य का परिज्ञान नहीं हो पाता ।
तीर्थंकरबन्ध की पृष्ठ भूमि :
तीर्थंकर गोत्र के बन्ध की चर्चा करते हुए, दो हजार वर्ष पूर्व रचित षट्खण्डागम के बन्ध स्वामित्व विचय नामक अधिकार खण्ड ३, पुस्तक में श्री भगवन्त पुष्पदन्त भूतबलि श्राचार्य ने
'कदिहिं कारणेहि जीवा तित्थयरणाम गोदं कम्मं बंधंति' ।। ३९ ॥
सूत्र में तीर्थंकर नामकर्म के बन्ध प्रत्यय प्रदर्शक सूत्र की उपयोगिता बतलाते हुए लिखा है कि 'तीर्थंकर गोत्र, मिथ्यात्व प्रत्यय नहीं है' ग्रर्थात् मिथ्यात्व के निमित्त से बंधने वाली सोलह
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