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________________ (११) सिद्धान्तानुसार 'दश नव' का अर्थ ८१० होता और उत्तर का अर्थ उत्तम भी होता है, अतः 'दशनवोतर वर्ष युक्त संवत्सरे' का अर्थ ६१० संख्यक उतम वर्षों से युक्त संवत् में, होता है । विचारणीय यह है कि यह ६१० शकसंवत् है या विक्रम संवत् ? यद्यपि दक्षिण भारत में शकसंवत् का प्रचलन अधिक है अतः विद्वान् लोग इसे शकसंवत् मानते आते हैं परन्तु पत्राचार करने पर इतिहास के मर्मज्ञ श्रीमान् डा. ज्योतिप्रसादजी लखनऊ ने अपने ८-१०-७३ के पत्र में यह अभिप्राय प्रकट किया है __ रचना काल ६१० को मैं विक्रम संवत् =९५३ ई. मानता हूं क्योंकि ६५० ई. के पंप पोन आदि कन्नड कवियों ने इसकी प्रशंसा की है इनके निवास और पद की चर्चा करते हुए भी उन्होंने लिखा है। "असग एक गृहस्थ कवि थे" नागनन्दी के शिष्य थे, और आर्यनन्दी के वैराग्य पर इन्होंने वर्धमान चरित की रचना की । असग मूलतः कन्नड निवासी रहे प्रतीत होते हैं और सम्भव है इनकी अन्य रचनाओं में से अधिकांश कन्नड भाषा में ही हों। इनके पाश्रय दाता तामिल प्रदेश निवासी थे। मद्रास के निकटवर्ती चोलमण्डल या प्रदेश में ही, संभवतया तत्कालीन पल्लव नरेश-नन्दि पोतरस के चोल सामन्त श्रीनाथ के प्राश्रय में उसकी विरला नगरी में वर्धमान चरित की रचना की थी। एक नागनन्दी का भी उक्त काल एवं प्रदेश में सद्भाव पाया जाता है । श्रवण वेलगोला के १०८ संख्यक शिलालेख से ज्ञात होता है कि नागनन्दी नन्दिसंघ के प्राचार्य थे। शान्तिनाथ पुराण शान्तिनाथ पुराण में इस अवसपिणी युग के सोलहवें तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ भगवान् का पावन चरित लिखा गया है। शांतिनाथजी तीर्थंकर, चक्रवर्ती और कामदेव पद के धारक थे। तीर्थङ्कर पद अत्यन्त दुर्लभ पद है इस पद के धारक समस्त अढ़ाई द्वीप में एक साथ १७० से अधिक नहीं हो सकते ( पांच भरत के, पांच ऐरावत के, और १६. विदेह के ) अनेक भवों में साधना करने वाले जीव ही इस पद को प्राप्त कर सकते हैं । ग्रन्थकार असग कवि ने शान्ति नाथ के पूर्वभवों का वर्णन अत्यन्त विस्तार से किया है उन पूर्वभवों के वर्णन से यह अनायास विदित हो जाता है कि शान्तिनाथ के जीव ने उन पूर्वभवों में किस प्रकार आत्म साधना कर अपने आपको तीर्थंकर बना पाया है शान्तिनाथ भगवान् के पूर्वभव सहित वर्तमान वृत का वर्णन मैंने इसी ग्रन्थ के विषय सूची स्तम्भ में दिया है अतः इसे पुनरुक्त करना उचित नहीं समझता । यह जीव तीर्थकर कैसे बनता है अर्थात् तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किस जीव को होता है इसकी चर्चा करते हुए नेमिचन्द्राचार्य ने 'कर्मकाण्ड में लिखा है कि केवली या श्रु तकेवली के सन्निधान में प्रथमोपशम, द्वितीयोपशम, क्षायोपशमिक १ पढमुवसमिये सम्मे सेसतिये अविरदादि चत्तारि । तित्थयरबंध पारंभया गरा केवलिदुगते ॥ ९३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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