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________________ १०२ श्रीशान्तिनाथपुराणम् 'चारताराम्बरोपेताः प्रसन्नेन्दुमुखश्रियः । शरन्निशा इवाभान्ति यत्र रामा मनोरमाः ॥६॥ सरितस्तीरसंरूढलवङ्गप्रसवोत्करः । प्रयत्नवासितं तोयं दधते यत्र सन्ततम् ॥७॥ रोज्यन्तेऽब्ज षण्डेषु हंसा यत्रोन्मदिष्णवः । स्पर्द्ध येव चलल्लक्षम्या म मञ्जीरसिञ्जितः ॥८॥ प्रथास्ति जगति ख्यातं पुरं सद्रस्नगोपुरम् । सुरत्नसंचयावासादात्यया रत्नसंचयम् ॥६।। "तुलाकोटिसमेतासु "तुलाकोटिविराजिताः । चित्रपत्राभिरामासु चित्रपत्र विशेषकाः ॥१०॥ अनुरूपं विशुद्धासु वलभीषु विशुद्धयः। 'सविभ्रमासु तिष्ठन्ति यत्र रामाः सविभ्रमाः ॥११॥ (युग्मम् ) यस्मिन्सकमलानेकसरोवीचिसमीरणः । सुखाय कामिना वाति मन्दं मन्दं समीरणः ॥१२॥ यदभ्रषसौधायनोरन्ध्रध्वजविभ्रमैः । रुणद्धि सवितुर्माग तीवातपमयादिव ॥१३॥ नित्यप्रवर्षिणः शुद्धाः कृष्णान्काले प्रवधू कान् । यत्रातिशेरते पौराः प्रावृषेण्याबलाहकान् ॥१४॥ से युक्त आकाश से सहित होती हैं उसी प्रकार वहां की सुन्दर स्त्रियां भी चारुताराम्बरोपेता:-सुन्दर सूत वाले वस्त्रों से सहित थीं। और जिस प्रकार शरद् ऋतु की रात्रियां प्रसन्नेन्दुमुखश्रियः–मुख के समान निर्मल चन्द्रमा की शोभा से सहित होती हैं उसी प्रकार वहां की स्त्रियां भी निर्मल चन्द्रमा के समान मुख की शोभा से सहित थीं ॥६।। जहां की नदियां तटों पर उत्पन्न लवङ्ग के फूलों के समूह से प्रयत्न के बिना सुवासित जल को निरन्तर धारण करती हैं ॥७॥ जहां कमल समूहों में बैठे हुए गर्वीले हंस चलती हुई लक्ष्मी के मनोहर नूपुरों की झनकार के साथ ईर्ष्या से ही मानों शब्द करते रहते हैं ।।८।। तदनन्तर उस देश में जगत् प्रसिद्ध रत्नसंचय नामका वह नगर है जहां उत्तम रत्नों के गोपुर बने हुए हैं और उत्तम रत्नों का निवास होने से ही मानों उसका रत्नसंचय नाम पड़ा था ।।६।। जहां करोड़ों उपमाओं से सहित, चित्रमय वाहनों से सुन्दर, विशुद्ध और पक्षियों के संचार से युक्त अट्टालिकामों में उन्हीं के अनुरूप नूपुरों से सुशोभित, विविध प्रकार के पत्राकार तिलकों से सहित, विशुद्ध-उज्ज्वल और विभ्रम हावभावों से सहित स्त्रियां निवास करती हैं। भावार्थ-स्त्रियों और अट्टालिकाओं में शाब्दिक सादृश्य था ॥१०-११।। जहां कमलों से सहित अनेक सरोवरों की तरङ्गों से प्रेरित वायु कामीजनों को सुख के लिये धीरे-धीरे बहती रहती है ।।१२।। जो गगन चुम्बी महलों के अग्रभाग में सघन रूप में लगी हुई ध्वजाओं के संचार से ऐसा जान पड़ता है मानों तीव्र संताप के भय से सूर्य के मार्ग को ही रोक रहा हो ।।१३।। जहां निरन्तर बरसने वाले सदा दान देने वाले शुद्ध-निर्मल हृदय नगर वासी, निश्चित समय पर बरसने वाले वर्षा ऋतु के काले मेघों को जीतते रहते हैं ॥१४।। जहां स्त्रियां शब्द विद्या व्याकरण विद्या के समान सुशोभित होती हैं । क्योंकि जिस १ सुन्दरसूववस्त्रसहिता रामाः, शोभननक्षत्रयुक्तगगन सहिताः शरनिशा! २ पुनः पुनः शब्दकुर्वन्ति ३ कमल समूहेषु ४ उपमानकोटिसहितासु पीठिकायुक्तासु वा ५ नूपुरविशोभिताः ६ वीनां पक्षिणांभ्रमेण सहिताः सविभ्रमास्तासु ७ हावभावविलाससहिता। ८ मेघान् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002718
Book TitleShantinath Purana
Original Sutra AuthorAsag Mahakavi
AuthorHiralal Jain, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherLalchand Hirachand Doshi Solapur
Publication Year1977
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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