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उत्तेव सत्त तच्चा संजुत्ता पुण्णपावजुगलेहिं । तेहोति णवपदत्था णाणपरिच्छेदिदंपदत्थोहु।। 182||
अन्वय - उत्तेव सत्त तच्चा पुण्णपावजुगलेहिं संजुत्ता ते णवपदत्था होंति हु णाणपरिच्छेदिदं पदत्थो।
__ अर्थ - ऊपर के सात तत्त्व, पुण्य और पाप से संयुक्त होकर वे नव पदार्थ होते हैं । ज्ञान के द्वारा जिनका अनुभव होता है ऐसे ये पदार्थ हैं ।
जीवाजीवपदत्था तह आसवबंधसंवरपदत्था । णिज्जरमोक्खपदत्था पुण्णपदत्थो हजाण पावपदत्थो।। 183||
अन्वय - जीवाजीवपदत्था तह आसवबंधसंवरपदत्था णिज्जरमोक्खपदत्था पुण्णपदत्थो पावपदत्यो ह जाण ।
अर्थ - जीव पदार्थ, अजीव पदार्थ, आस्रव पदार्थ, बंध पदार्थ, संवर पदार्थ, निर्जरा पदार्थ, मोक्ष पदार्थ, पुण्य पदार्थ और पाप पदार्थ, ये नव पदार्थ जानों ।
संसारत्था जीवा सव्वे पुण्णा हवंति पावा य। सव्वाणि पोग्गलाणि हु पुण्णाणि तहेव पावाणि ||184||
अन्वय - संसारत्था सब्वे जीवा पुण्णा पावा य तहेव सव्वाणि पोग्गलाणि हु पुण्णाणि पावाणि हवंति।
अर्थ - संसार में स्थित सभी जीव पुण्य और पाप रूप होते हैं तथा सभी पुद्गल भी पुण्य और पाप रूप होते हैं ।
जे सुहभावेहिं जुदा ते जीवा होति पुण्णसण्णा हु। जे यासुहभावजुदा ते जीवा पावसण्णा हु ||185।।
अन्वय - जे जीवा सुहभावेहिं जुदा ते पुण्णसण्णा होति हु जे जीवा यासुहभावजुदा ते पावसण्णा हु।
अर्थ - जो जीव शुभ भावों से युक्त हैं , वे जीव पुण्य संज्ञक हैं तथा जो अशुभ भाव से सहित हैं वे जीव पाप संज्ञक हैं।
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