SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुणट्ठाणे खवगे खीणमोहे य जिणेसु दव्वा असंखगुणिदकमा इदि एगादसणिज्जरठाणे खविदूण सव्व कम्माणी जीवो अणंतणाणाइगुणजुदो हु लोयग्गे चिटेदि। ___ अर्थ- सम्यग्दर्शन प्राप्त करते समय अर्थात् सातिशय मिथ्यादृष्टि, देशव्रती अर्थात् श्रावक, महाव्रत ग्रहण करते समय, प्रथम अर्थात् अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना के समय, मिथ्यात्वत्रय अर्थात् मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति का क्षय करते समय, अप्रत्याख्यान आदि 21 कषायों के उपशम करते समय, उपशांत मोह गुणस्थान, क्षपक श्रेणी, क्षीणमोह गुणस्थान, सयोग केवली और अयोग केवली जिन इन स्थानों में क्रम से असंख्यात गुणी निर्जरा होती है। ____ इस प्रकार निर्जरा के ग्यारह स्थानों में सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करके जीव अनंत ज्ञानादि गुणों से सहित होकर लोक के अग्र भाग में स्थित हो जाता है । इति निर्जरातत्त्वम् । सव्वेसिं कम्माणं खयकारणमप्पसुद्धपरिणामो । सो भावमोक्खदव्वविमोक्खो खलु जीवकम्मपुहकरणं॥180|| __ अन्वय - सव्वेसिं कम्माणं खयकारणमप्पसुद्धपरिणामो खलु सो भावमोक्खदव्वविमोक्खो जीवकम्मपुहकरणं । अर्थ - सभी कर्मों का क्षय करके आत्मा का जो शुद्ध भाव है वह भाव मोक्ष तथा जीव का कर्मों से पृथक् करना द्रव्य मोक्ष कहलाता है । तत्तो अप्पा खाइयसम्मत्तपहदि अट्रगणसहिदो । लोयग्गं गत्ता खलु चिट्टेदि सया अणंतसुही ||181|| अन्वय - तत्तो अप्पा खाइयसम्मत्तपहुदि अट्ठगुणसहिदो खलुलो यग्गं गत्ता अणंतसुही सया चिटेदि । अर्थ - इसके पश्चात् आत्मा क्षायिक सम्यक्त्वादि आठ गुणों से सहित, लोकाग्र में जाकर सदाकाल के लिये अंनत सुख में स्थित हो जाता है । इति मोक्ष तत्त्वम् । इति सप्ततत्त्वनिरूपणम् । ( 51 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002708
Book TitleParamagamsara
Original Sutra AuthorShrutmuni
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherVarni Digambar Jain Gurukul Jabalpur
Publication Year2000
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, H000, H999, P000, & P999
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy