________________
भावों से रहित होता हुआ, अपने परम पारिणामिक से उत्पन्न सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्वारित्र की एकता को प्राप्त कर आत्म स्वरूप को प्राप्त होकर स्वयं ही निर्विकार, विकल्प रहित चिदानंद रूप अवस्था को प्राप्त हो जाता है।
णाणाइ गुणेहि जुदो णियसुद्धप्पा हु तस्सुवादेयो। जे अप्पणो हु भिण्णा ते हेया इयरुवादेया ||84||
अन्वय - णाणाइ गुणेहि जुदो णियसुद्धप्पा हु उवादेयो तस्स जे अप्पणो हु भिण्णा ते हेया इयरुवादेया।
अर्थ - ज्ञानादि गुणों से युक्त निज शुद्धात्मा निश्चय से उपादेय है उसमें जो आत्मा से भिन्न भाव हैं वे हेय हैं तथा जो अपृथक् भाव हैं वे उपादेय हैं।
एवं छहं दव्वाणं पि सरूवं समासदो भणिदं । वित्थरदो परमागमसत्थे जाणंतु सविसेसं 185||
अन्वय - एवं छण्हं दव्वाणं पि सरूवं समासदो भणिदं वित्थरदो परमागमसत्थे सविसेसं जाणंतु |
अर्थ - इस प्रकार छह द्रव्यों के स्वरूप को संक्षेप से कहा । विस्तार से तथा विशेष रूप परमागम शास्त्र से जानों।
इति षड्द्रव्यस्वरूपनिरूपणम् ॥ आदा तिविहो देहिसु बहिरंतरपरम चेदि तेसु खलु। चित्ता बहिरप्पाणं मज्झा वा यादुवासये परमं 186||
अन्वय - तेसु देहिसु आदा तिविहो बहिरंतरपरम चेदि चित्ता बहिरप्पाणं मज्झा उवासये परमं ।
अर्थ - उन संसारी जीवों में आत्मा तीन प्रकार की बहिरात्मा, अतंरात्मा और परमात्मा। बहिरात्मा अवस्था को छोड़कर, मध्यमात्मा होकर परमात्मा की उपासना करना चाहिए ।
( 24 )
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org