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त्ति उच्चदि, कारणे कज्जुवयारादो। जिस कर्म के उदय से नारक भाव जीवों के होता है, वह कर्म कारण में कार्य के उपचार से 'नरकगति' इस नाम से कहलाता है। (ध. 6/67) हिंसादिष्वसदनुष्ठानेषु व्यापृताः निरतास्तेषां गतिर्निरतगतिः। अथवा नरान् प्राणिनः कायति यातयति खलीकरोति इति नरकः कर्म, तस्य नरकस्यापत्यानि नारकास्तेषांगतिरिकगतिः। जो हिसादि असमीचीन कार्यों में व्याप्त हैं उन्हें निरत कहते हैं और उनकी गति को निरतगति कहते हैं । अथवा जो नर अर्थात् प्राणियों को काता है अर्थात् यातना देता है, पीसता है, उसे नरक कहते हैं। नरक यह एक कर्म है। इससे जिनकी उत्पत्ति होती है उनको नारक कहते हैं, और उनकी गति को नारकगति कहते हैं।
(ध. 1/201)
सकलतिर्यक्पर्यायोत्पत्तिनिमित्ता तिर्यग्गतिः। अथवा तिर्यग्गतिकर्मोदयापादित तिर्यक्पर्यायकलापस्तिर्यग्गतिः अथवा तिरोवक्रं कुटिलमित्यर्थः तदञ्चन्तित्रजन्तीति तिर्यञ्चः। तिरश्चांगतिः तिर्यग्गतिः। समस्त जाति के तिर्यंचों में उत्पत्तिका जो कारण है उसे तिर्यग्गति कहते हैं अथवा तिर्यग्गति कर्म के उदय से प्राप्त हुए तिर्यंचपर्यायों के समूह को तिर्यग्गति कहते हैं अथवा तिरस् वक्र और कुटिल ये एकार्थवाची नाम हैं, इसलिये यह अर्थ हुआ कि जो कुटिलभाव को प्राप्त होते हैं उन्हें तिर्यंच कहते हैं और उनकी गति को तिर्यग्गति कहते हैं। (ध. 1/203) यतो जीवस्य नारकपर्यायो भवति सा नरकगतिः। जिसके कारण जीव की नारकपर्याय होती है, वह नरकगति है।
(क.प्र./17) यनिमित्त आत्मनोनारकोभावस्तन्नरकगतिनाम। जिसका निमित्त पाकर आत्मा कानारक भाव होता है वह नरकगति नामकर्म
(स.सि. 8/11) तिर्यग्गतिनामकर्म . .
जस्सकम्मस्सउदएण तिरिक्खमावोजीवाणं होदि,तं कर्मतिरिक्खगदि त्ति उच्चदि, कारणे कन्जुवयारादो। जिस कर्म के उदय से तिर्यश्च भाव जीवों के होता है, वह कर्म कारण में कार्य .
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