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के उपचार से 'तिर्यग्गति' इस नाम से कहलाता है। (ध. 6/67 आ) तिरियंतिकुडिल-भावं सुवियड-सण्णाणिगिट्ठमण्णाणा। अच्चंत-पाव-बहुला तम्हा तेरिच्छया णाम ॥ जो मन, वचन और कायकी कुटिलताको प्राप्त है, निजकी आहारादि संज्ञाएँ सुव्यक्त हैं, जो निकृष्ठ अज्ञानी हैं और जिनके अत्यधिक पापकी बहुलता पायी जावे उनको तिर्यंच कहते हैं।
(ध 1/202) यतस्तिर्यक्पर्यायोभवति प्राणिनःसा तिर्यग्गतिः। जिसके कारण जीव की तिर्यंच पर्याय होती है, वह तिर्यग्गति है।
(क.प्र./18) तिरोभावोन्यग्भावः उपबाह्यत्वमित्यर्थः ततः कर्मोदयापादितभावा तिर्यग्योनिरित्याख्यायते। तिरश्चियोनिर्येषां ते तिर्यग्योनयः। तिरोभाव, न्यग्भाव, उपबाह्य सब एकार्थवाची हैं। तिरोभाव अर्थात् नीचे रहना-बोझा ढोना कर्मोदय से जिनमें तिरोभाव प्राप्त है, वे तिर्यग्योनि हैं।
(रा.वा./4/27) मनुष्यगतिनामकर्म
जस्स कम्मस्स उदएण मणुसभावो जीवाणं होदि, तं कम्म मणुसगदि त्ति उच्चदि, कारणे कज्जुवयारादो। जिस कर्म के उदय से मनुष्य भाव जीवों के होता है, वह कर्म कारण में कार्य के उपचार से 'मनुष्यगति' इस नाम से कहलाता है। • (ध. 6/67 आ) यतो मनुष्यपर्याय आत्मनोभवति सामनुष्यगतिः। जिसके कारण आत्मा की मनुष्यपर्याय होती है, वह मनुष्यगति है।
(क.प्र./18) देवगतिनामकर्म जस्स कम्मस्स उदएण देवभावो जीवाणं होदि, तं कम्मं देवगदि त्ति उच्चदि, कारणे कज्जुवयारादो। जिस कर्म के उदय से देवभाव जीवों के होता है, वह कर्म कारण में कार्य के उपचार से 'देवगति' इस नाम से कहलाता है। (ध. 6/67 आ) यतो देवपर्यायो देहिनोभवति सा देवगतिः।
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