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मनुष्यायु जंकम मणुसमवं धारेदितं मणुसाउअंणाम । जो कर्म मनुष्य भव को धारण कराता है, वह मनुष्यायु कर्म है।
(ध. 13/362) जेसिं कम्मक्खंधाणमुदएण मणुस्स भवस्स अवट्ठाण होदि तेसिं मणुस्साउअमिदिसण्णा। जिन कर्म स्कंधों के उदय से मनुष्य भव में जीव का अवस्थान होता है, उन कर्म स्कंधों की 'मनुष्यायु' यह संज्ञा है।
(ध.6/49 आ) यन्मनुष्यशरीरे प्राणिनं धारयति तन्मनुष्यायुष्यम्। जो प्राणी को मनुष्य-शरीर में धारण कराता है, वह मनुष्यायुष्य है।
. (क.प्र./16) शरीरेणमानसेन चसुखदुःखेनसमाकुलेषुमनुष्येषुयस्योदयाजन्मभवति तन्मानुषमायुरवसेयम्। शारीरिक मानसिक सुख और दुःखों से व्याप्त मनुष्यों में जिसके उदय से जन्म होता है वह मानुष आयु कर्म है।
(त.वृ. भा.8/10) देवायु जं कम्मं देवभवं धारेदि तं देवाउअंणाम। जो कर्म देव भव को धारण कराता है, वह देवायु कर्म है। (ध. 13/362) जेसिं कम्मक्खंधाणमुदएण देवस्समवस्सअवट्ठाणं होदितेसिं देवाउअमिदिसण्णा। जिन कर्म स्कंधों के उदय से देव भव में जीव का अवस्थान होता है, उन कर्म स्कंधों की 'देवायु' यह संज्ञा है।
(ध. 6/49 आ) यद्देवशरीरे देहिनं धारयति तद्देवायुष्यम्। जो प्राणी को देव-शरीर में धारण कराता है, वह देवायुष्य है। (क.प्र./16) शारीरेणमानसेनचसुखेन प्रायःसमाविष्टेषु देवेषु यस्योदयाजन्म भवति तदैवमायुरवबोद्धव्यम्। शारीरिक और मानसिक सुखों से प्रायः भरपूर भरे हुए देवों में जिसके उदय से जन्म होता है वह देवायु कर्म है।
(त.वृ. भा.8/10)
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