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उसका सत्कर्म तीन प्रकार का है - सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व।
__(ध. 6/38) सम्यक्त्व
अत्तागम-पदत्थसद्धाए जस्सोदएण सिथिलत्तं होदि, तं सम्मत्तं । जिस कर्म के उदय से आप्त, आगम और पदार्थों की श्रद्धा में शिथिलता होती है वह सम्यक्त्व प्रकृति है।
- (ध. 6/39) तत्त्वार्थश्रद्धानरूपं सम्यग्दर्शनं चलमलिनमगाढं करोति यत्सा सम्यक्त्वप्रकृतिः। जो तत्त्वार्थ की श्रद्धारूप सम्यग्दर्शन में चल, मलिन तथा अगाढ़ दोष उत्पन्न करे, वह सम्यक्त्वप्रकृति है।
(क.प्र./11) तदेव सम्यक्त्वं शुभपरिणाम निरुद्धस्वरसं यदौदासीन्येनावस्थितमात्मनःश्रद्धानं ननिरुणद्धि, तद्वेदयमानः पुरुषःसम्यग्दृष्टिरित्यभिधीयते। वही मिथ्यात्व जब शुभ परिणामों के कारण अपने स्वरस (विपाक) को रोक देता है और उदासीन रूप से अवस्थित रहकर आत्मा के श्रद्धान को नहीं रोकता है तब सम्यक्त्व (सम्यक्प्रकृति) है। इसका वेदन करने वाला पुरुष सम्यग्दृष्टि कहा जाता है।
(स.सि.8/9) मिथ्यात्व
जस्सोएदण अत्तागम पयत्थेसु असद्धा होदि, तं मिच्छत्तं।। जिस कर्म के उदय से आप्त, आगम और पदार्थो में अश्रद्धा होती है। वह मिथ्यात्व प्रकृति है।
(ध. 6/39) यस्योदयात्सर्वज्ञप्रणीतमार्गपराङ्मुखस्तत्त्वार्थश्रद्धाननिरुत्सुको हिताहितविचारासमर्थो मिथ्यादृष्टिर्भवति तन्मिथ्यात्वम्। जिसके उदय से यह जीव सर्वज्ञप्रणीत मार्ग से विमुख, तत्त्वार्थों के श्रद्धान करने में निरुत्सुक, हिताहित का विचार करने में असमर्थ ऐसा मिथ्यादृष्टि होता है वह मिथ्यात्व दर्शन मोहनीय है।
(स.सि. 8/9) सम्यग्मिथ्यात्व
जस्सोदएण अत्तागम पयत्थेसुतप्पडिवक्खेसुय अक्कमेणसद्धाउप्पज्जदि तंसम्मामिच्छत्तं। जिस कर्म के उदय से आप्त, आगम और पदार्थों में तथा उनके प्रतिपक्षियों
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