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में अर्थात् कुदेव, कुशास्त्र और कुत्त्वों में युगपत् श्रद्धा उत्पन्न होती है, वह सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति है । (ध. 6 / 39 ) सम्मत्तमिच्छत्त भावाणं संजोग समुब्भूद भावस्स उप्पाययं कम्मं सम्मामिच्छत्तं णाम ।
सम्यक्त्व और मिथ्यात्त्व रूप दोनों भावों के संयोग से उत्पन्न हुए भाव का उत्पादक कर्म सम्यग्मिथ्यात्व कहलाता है । (ध. 13 / 359 )
तत्त्वातत्त्वश्रद्धानकारणं सम्यङ्मिथ्यात्वम् । जिससे तत्त्व तथा अतत्त्व दोनों का श्रद्धान हो वह सम्यग्मिथ्यात्व है । (क. प्र. / 10)
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तदेव मिथ्यात्वं प्रक्षालनविशेषात्क्षीणाक्षीणमदशक्ति-कोद्रववत्सामिशुद्धस्वरसं तदुभयमिथ्याख्यायते सम्य मिथ्यात्वमिति यावत् । यस्योदयादात्मनोऽर्धशुद्धमदकोद्रवौदनोपयोगापादित मिश्रपरिणामवदुभयात्मको भवति परिणामः ।
वही मिथ्यात्व प्रक्षालन विशेष के कारण क्षीणाक्षीण मदशक्तिवाले कोदों के समान अर्धशुद्ध स्वरसवाला होने पर तदुभय या सम्यग्मिथ्यात्व कहा जाता है। इसके उदय से अर्धशुद्ध मदशक्तिवाले कोदों और ओदन के उपयोग से प्राप्त हुए मिश्रपरिणाम के समान उभयात्मक परिणाम होता है ।
(स.सि. 8 / 9 )
चारित्र मोहनीय
पापक्रियानिवृत्तिश्चारित्रम् । घादिकम्माणिपावं । तेसिं किरिया मिच्छत्तासंजमकसाया । तेसिमभावो चारित्रं । तं मोहेइ आवारेदि त्ति चारितमोहणीयं ।
पापरूप क्रियाओं की निवृत्ति को चारित्र कहते हैं । घातिया कर्मों को पाप कहते हैं । मिथ्यात्व, असंयम और कषाय ये पापकी क्रियाएं है । इन पाप 1 क्रियाओं के अभाव को चारित्र कहते हैं । उस चारित्र को जो मोहित करता है, अर्थात् आच्छादित करता है, उसे चारित्रमोहनीय कहते हैं ।
(ध. 6/40)
रागाभावो चारित्रं, तस्स मोहयं तप्पडिवक्खभावप्पाययं चारित्तमो
यं ।
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