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________________ . मोहनीयस्य का प्रकृतिः। मद्यपानवद्वेयोपादेयविचारविकलता। . मद्यपान के समान हेय-उपादेय ज्ञान की रहितता, यह मोहनीय कर्म की प्रकृति है। (द्र.सं./टी/33) श्रद्धानं चारित्रं च यो मोहयति विलोपयति मुह्यतेनेनेति वा स मोहः कर्मविशेषः। श्रद्धान और चारित्र को जो मोहित करता है - लुप्त करता है अथवा जिसके द्वारा मोहित किया जाता है वह मोह है, मोहकर्म है। (त.वृ. भा. 8/4) मोहनीय कर्म के भेद जंतं मोहणीयं कम्मतं दुविहं दंसणमोहणीयं चेवचारित्तमोहणीयं चेव। वह मोहनीय कर्म दो प्रकार का है - दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय. - (ध. 6/37) दर्शनमोहनीय कर्म अत्तागम पयत्थेसु पच्चओरुई सद्धा पासोचदंसणं णाम। तस्य मोहयं तत्तो विवरीयभावजणणं दसणमोहणीयं णाम। आप्त, आगम और पदार्थों में जो प्रत्यय रुचि, श्रद्धा और दर्शन होता है, उसका नाम दर्शन है। उसको मोहित करने वाला अर्थात् उससे विपरीत भाव को उत्पन्न करने वाला कर्म दर्शनमोहनीय कहलाता है। . (ध. 13/357-358) जस्स कम्मस्य उदएण अणत्ते अत्तबुद्धी अणागमे आगमबुद्धी अपयत्थे पयत्थबुद्धी अत्तागमपयत्थेसुसद्धाए अस्थिरतं, दोसु विसद्धावा होदि तं दंसणमोहणीयमिदिउत्तं होदि। जिस कर्म के उदय से अनाप्त में आप्त बुद्धि और अपदार्थ में पदार्थ बुद्धि होती है अथवा आप्त, आगम और पदार्थों में श्रद्धान की अस्थिरता होती है अथवा दोनों में भी अर्थात् आप्त अनाप्त में आगम अनागम में और पदार्थ अपदार्थ में श्रद्धा होती है । वह दर्शनमोहनीय कर्म है। (ध. 6/38) दर्शनमोहनीय के भेद जंतं दसणमोहणीयं कम्मं तं बन्धादो एयविहं तस्यसंतकम्मं पुण तिविहं सम्मत्तं मिच्छत्तंसम्मामिच्छत्तं चेदि। जो दर्शनमोहनीय कर्म है वह बन्ध की अपेक्षा एक प्रकार का है किन्तु (17) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002707
Book TitlePrakruti Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherDigambar Sahitya Prakashan
Publication Year1998
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size6 MB
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