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जिस कर्म के उदय से रस, रुधिर, मेदा, मज्जा, अस्थि, मांस और शुक्र इन सात धातुओं की स्थिरता अर्थात् अविनाश व अलगन हो (गलना न हो) वह स्थिर नामकर्म है।
(ध. 6/63) जस्स कम्मस्सुदएणरसादीणं सगसरुवेण केत्तियंपिकालमवट्ठाणं होदि तं थिरणाम। जिस कर्म के उदय से रसादिक धातुओं का अपने रूप से कितने ही काल तक अवस्थान होता है वह स्थिर नामकर्म है। (ध 13/365) स्थिरभावस्य निर्वर्तकं स्थिरनाम। स्थिरभाव का निवर्तक कर्म स्थिर नामकर्म है। (स.सि. 8/11) यदुदयात् दुष्करोपवासादितपस्करणेऽपिअङ्गोपाङ्गानां स्थिरत्वं जायते तत् स्थिरनाम। जिसके उदय से दुष्कर उपवास आदि तप करने पर भी अंग उपांग आदि स्थिर बने रहते हैं, कृश नहीं होते वह स्थिर नामकर्म है। (रा.वा. 8/11) यस्योदयादुष्करोपवासादितपश्चरणेप्यङ्गोपाङ्गानां स्थिरत्वं जायते तत् स्थिरनाम। जिसके उदय से दुष्कर उपवास आदि तपश्चरण करने पर भी अंगोपांग स्थिर रहते है वह स्थिर नाम कर्म है।
(त.वृ.भा.8/11) बहुरि जाके उदय से रसादिक धातु अर उपधातु अपने-अपने ठिकाने स्थिर रहैं, सो स्थिर नाम है ..... सो इनका शरीर विषै जहाँ ठिकाना है। तहाँ ही स्थिर रहैं सो स्थिर प्रकृति के उदय तै रहे हैं। (गो.का. स.च/33) विशेष - यदि स्थिरनामकर्म न हो, तो इन धातुओंका स्थिरताके अभावसे गलना ही होगा। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, हानि और वृद्धिके बिना इन धातुओंका अवस्थान देखा जाता है।
(ध. 6/63) अस्थिर नामकर्म जस्स कम्मस्सउदएणरसरुहिर-मांस-मेद-मज्जट्ठि-सुक्काणं परिणामो होदितमथिरणाम। जिस कर्म के उदय से रस, रुधिर, मांस, मेदा, मज्जा, अस्थि और शुक्र, इन धातुओं का परिणमन होता है, वह अस्थिर नामकर्म है। (ध 6/63)
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