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जस्स कम्मस्सुदएण रसादीणमवुरिम धातुसरूवेण परिणामो होदि तमथिरामं ।
जिस कर्म के उदय से रसादिकों का आगे की धातुओं स्वरूप से परिणमन होता है, वह अस्थिर नामकर्म है ।
(ध 13 / 365 )
यदुदयादीषदुपवासादिकरणात् स्वल्पशीतोष्णादिसं - बन्धाच्च अङ्गोपाङ्गानि कृशी भवन्ति तदस्थिरनाम ।
जिस कर्म के उदय से एक उपवास से या साधारण शीत उष्ण आदि से ही शरीर में अस्थिरता आ जाय, कृश हो जाय वह अस्थिर नामकर्म है । (रा. वा. 8 / 11 )
यस्योदयादीषदुपवासादिकरणे स्वल्पशीततोष्णादिसम्बन्धा-द्वाऽङ्गोपांगानि कृशीभवन्ति तदस्थिरनाम ।
जिसके उदय से अल्प उपवास आदि करने पर अथवा अल्प शीत या उष्ण के सम्बन्ध से अंगोपांगकृश हो जाते हैं वह अस्थिर नामकर्म है ।
(त.वृ.भा. 8 / 11 )
विशेष- रससे रक्त बनता है, रक्त से मांस उत्पन्न होता है, मांस से मेदा पैदा होती है, मेदासे हड्डी बनती है, हड्डी से मज्जा पैदा होता है, मज्जा से शुक्र उत्पन्न होता है और शुक्र से प्रजा (सन्तान) उत्पन्न होती है । पन्द्रह नयन- निमेषों की एक काष्ठा होती है । तीस काष्ठाकी एक कला होती है। वीस कला का एक मुहूर्त होता है। तीस मुहूर्त और कला के दशवें भाग कलाप्रमाण एक अहोरात्र (दिन-रात ) होता है । पन्द्रह अहोरात्रों का एक पक्ष होता है । पच्चीस सौ चौरासी कलाप्रमाण, तथा तीन बटे सात भागों से
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परिहीन नौ काष्ठा प्रमाण (2584 क. 8
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का.) काल तक रस स्वरूप से रहकर रुधिररूप परिणत होता है वह रुधिर भी उतने ही काल तक रुधिररूप से रहकर मांसस्वरूप से परिणत होता है । इसी प्रकार शेष 1 धातुओं का भी परिणमन काल कहना चाहिए। इस तरह एक मासके द्वारा रस शुक्ररूप से परिणत होता है ।
इस अस्थिरनामकर्मके अभावमें धातुओंके क्रमशः परिवर्तनका नियम न रहेगा । किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसा माननेपर अनवस्था प्राप्त होती है । (ध. 6 / 63-64)
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