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शरीरनामकर्म के उदय से रचाजाने वाला जो शरीर जिसके निमित्त से एक आत्मा के उपभोग का कारण होता है वह प्रत्येक शरीर नामकर्म है
__(स.सि. 8/11) विशेष - यदि प्रत्येकशरीरनामकर्म न हो, तो एक शरीरमें एक जीवका ही उपलम्भ नहीं होगा। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, प्रत्येकशरीरी जीवोंका सद्भाव बाधा-रहित पाया जाता है।
(ध. 6/62) साधारण शरीर नामकर्म
जस्स कम्मस्सुदएण एगसरीरा होदूण अणंताजीवा अच्छंति तं कम साहारणसरीरं। जिस कर्म के उदय से एक ही शरीर वाले होकर अनन्त जीव रहते हैं, वह साधारण शरीर नामकर्म है।
(ध 13/365) जस्स कम्मस्स उदएण जीवो साधारणसरीरो होज्न, तस्स कम्मस्य साधारण सरीरमिदिसण्णा। जिस कर्म के उदयसे जीवसाधारण शरीरी होता है, उस कर्म की ‘साधारण शरीर' यह संज्ञा है।
(ध 6/63) साधारणशरीरनामानन्तजीवानामेकशरीरस्वामित्वं करोति। साधारण शरीर नामकर्म अनन्त जीवों को एक शरीर का स्वामी करता है।
(क.प्र./36) बहूनामात्मनामुपभोगहेतुत्वेन साधारणं शरीरं यतो भवति तत्साधारण शरीरनाम। बहुत आत्माओं के उपभोग का हेतुरूप से साधारण शरीर जिसके निमित्त से होता है वह साधारण शरीर नामकर्म है। (स.सि. 8/11) विशेष - यदि साधारणनामकर्म न हो, तो सभी जीव प्रत्येकशरीरी ही हो जावेंगे। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, प्रतिपक्षी के अभाव में विवक्षित जीव के भी अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है।
(ध. 6/63) स्थिर नामकर्म
जस्स कम्मस्स उदएणरस - रुहिर-मेद-मज्जट्ठि-मांस-सुक्काणं त्थिरत्तमविणासो अगलणं होज्जतं थिरणाम।
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