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________________ अपर्याप्त नामकर्म जस्स कम्मस्स उदएण जीवो पज्जत्तीओ समाणेदुं ण सक्कदि तस्स कम्म स्स अपज्जत्तणाम सण्णा । जिस कर्म के उदय से जीव पर्याप्ति यों को समाप्त करने के लिये समर्थ नहीं होता है, उस कर्म की 'अपर्याप्त नाम' यह संज्ञा है । ( ध 6/62) अपर्याप्तनाम स्वस्वपर्याप्तीनामपूर्णतां करोति । अपर्याप्त नामकर्म अपनी-अपनी पर्याप्तियों की अपूर्णता करता है । षड्विधपर्याप्त्यभावहेतुरपर्याप्सिनाम । जो छह प्रकार की पर्याप्तियों के अभाव का हेतु है वह अपर्याप्त नाम कर्म है । ( स. सि. 8 / 11 ) विशेष- यदि अपर्याप्त नामकर्म न हो, तो सभी पर्याप्तक ही होवेंगे । किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, प्रतिपक्षी के अभाव में विवक्षितके भी अभावका प्रसंग प्राप्त होता है । (ET. 6/62) प्रत्येक शरीर जस्स कम्मस्सुदएण एक्कसरीरे एक्को चेव जीवो जीवदितं कम्मं पत्तेयसरीर णामं । जिस कर्म के उदय से एक शरीर में एक ही जीव जीवित रहता है, वह प्रत्येक शरीर नामकर्म है। ( ध 13 / 365 ) जस्स कम्मस्स उदएण जीवो पत्तेयसरीरो होदि, तस्स कम्मस्स पत्तेयसरीरमिदि सण्णा । जिस कर्म के उदय से जीव प्रत्येक शरीरी होता है, उस कर्म की 'प्रत्येक शरीर' यह संज्ञा है । (ध 6/62) (क.प्र./33) प्रत्येकशरीरनामैकस्य जीवस्येकशरीरस्वामित्वं करोति । प्रत्येक शरीर नामकर्म एक जीवको एक शरीर का स्वामी करता है । (क. प्र. / 36 ) शरीरनामकर्मोदयान्निर्वर्त्यमानं शरीरमेकात्मोपभोगकारणं यतो भवति तत्प्रत्येकशरीरनाम । Jain Education International (94) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002707
Book TitlePrakruti Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherDigambar Sahitya Prakashan
Publication Year1998
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size6 MB
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