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________________ प्रस्तावना - XVII १०. जिनपतिसूरि - पञ्चाशिका - कृति के नाम से ही स्पष्ट है कि कवि ने अपने गुरु जिनपतिसूरि की स्तवना के रूप में इसकी रचना की है। यह कृति अप्राप्त है। श्री अगरचन्दजी नाहटा के कथनानुसार जैसेलमेर ज्ञानभण्डारस्थ सं० १३८४ की लिखित स्वाध्याय पुस्तिका की विषयसूची में इसका उल्लेख था । ११. धर्म शिक्षा विवरण - आचार्य जिनवल्लभसूरि रचित इस औपदेशिक ४० पद्यात्मक लघु काव्य पर जिनपालोपाध्याय ने विस्तृत वृत्ति लिखी है। रचनाप्रशस्ति के अनुसार इस वृत्ति की विक्रम सम्वत् १२९३ पोष शुक्ला पूर्णिमा को हुई है (श्लोक १) । तत्कालीन गच्छनायक श्री जिनेश्वरसूरि के आदेश से इसकी रचना हुई है ( श्लोक ९ ) । प्रशस्ति श्लोक २ से ८ तक अपनी पूर्व गुरु- परम्परा का उल्लेख करते हुए जिनपालोपाध्याय लिखते हैं- आचार्य वर्द्धमानसूरि हुए उनके शिष्य जिनेश्वरसूरि हुए, जिन्होंने राज्यसभा में प्रतिवादियों को पराजित किया और जो सिद्धान्त एवं तर्क शास्त्र के महाविद्वान् हैं। इनके दो शिष्य हुए - जिनचन्द्रसूरि और अभयदेवसूरि । अभयदेवसूरि के शिष्य जिनवल्लभसूरि हुए, जिन्होंने इस धर्मशिक्षाप्रकरण की रचना की । इनके पट्टधर क्रमश: जिनदत्तसूरि, जिनचन्द्रसूरि और जिनपतिसूरि हुए। जिनपतिसूरि वादियों का मर्दन करने वाले वाद - विजेता हैं। इन्ही निपतिसूरि के शिष्यलेश जिनपाल ने गच्छनायक जिनेश्वरसूरि के आदेश से इस वृत्ति की रचना की है। दसवें पद्य में "नव्यकाव्यप्रबन्ध" कहकर सम्भवतः जिनपालोपाध्याय ने स्वप्रणीत सनत्कुमारचक्रिचरित महाकाव्य की ओर संकेत किया है। यह वृत्ति खण्डान्वय शैली में लिखी गई हैं। श्लोकगत प्रत्येक शब्द की व्याख्या विशद होते हुए भी सरल शैली में की गई है। श्लोक २ की व्याख्या में मनुष्य जन्म की दुर्लभता को उजागर करते हुए ग्रंथान्तरों के उद्धरण देते हुए विशेष विवेचन किया है। तत्त्वों में प्रतीति संज्ञक अधिकार में जीव- अजीव आदि नौ तत्त्वों का विवेचन बड़े विस्तार से किया है । " तत्त्व दो है, नव है या सात है।" इस प्रश्न को उठा कर शास्त्रीय आधारों को समक्ष रखते हुए प्रत्येक तत्त्व पर अपने विचार प्रस्तुत किये है । ऐसा प्रतीत होता है कि टीकाकार ने कर्मप्रकृति और नवतत्त्व-वृत्ति के आधार पर तत्त्वों पर एक स्वतंत्र विवरण ही नहीं लिख दिया हो ! इस ग्रंथ की टीका तीसरा हिस्सा तो केवल यह विवेचन ही है। गहण दार्शनिक विवेचन होने के कारण भाषा में प्रौढ़ता अधिक होते हुए भी प्रवाहमय है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002705
Book TitleDharmshiksha Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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