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विशेषातार्थ- इस गाथा के द्वारा ग्रन्थकार ने नय का लक्षण निरूपित किया है। नय श्रुतज्ञान का भेद है। इसलिए श्रुतज्ञान के आधार से ही नय की प्रवृति होती है। श्रुत ज्ञान प्रमाण होने से सकल ग्राही होता है, उसके एक अंश को ग्रहण करने वाला नय है। इसी से नय विकल्प रूप कहा जाता है। नय की विविध अन्य परिभाषायें भी उपलब्ध हैं। प्रतिपक्षी अर्थात् विरोधी धर्मों का निराकरण न करते हुए वस्तु के एक अंश या धर्म को ग्रहण करने वाला ज्ञाता का अभिप्राय नय हैं अथवा नाना स्वभावों से वस्तु को पृथक् करके जो. एक . स्वभाव में वस्तु को स्थापित करता है, वह नय है।
इन परिभाषाओं के पर्यालोचन से ज्ञात होता है कि प्रत्येक पदार्थ अनन्त धर्मात्मक है । उन सभी धर्मो का विवेचन एक-साथ-एक समय में करना संभव नहीं है। उन धर्मो का क्रम पूर्वक ही निरुपण संभव है अतः विवक्षित किसी एक धर्म का निरुपण करने वाला प्रयोग नय है । इस प्रकार नय के यथार्थ स्वरूप को जानता है - उसे ज्ञानी समझना चाहिये।
नयबोध की अनिवार्यता जह्मा ण णएण विणा होईणरस्स सियवायपडिवत्ती। तह्मा सो बोहव्वो एअंतं हतुकामेण ||3|| यस्मान्न नयेन विना भवति नरस्य स्याद्वादप्रतिपत्तिः। तस्मात्स बोद्धव्य एकान्तं हन्तुकामेन ।।3।।
अर्थ - नय के बिना मनुष्य को स्याद्वाद का बोध नहीं हो सकता। इसलिए जो एकान्त का विरोध करना चाहता है उस को नय जानना चाहिए।
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