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॥वीतरागाय नमः॥ श्रीदेवसेन विरचितं लघु नयचक्रम्
मंगलाचरण वीरं विसयविरत्तं विगयमलं विमलणाणसंजुत्तं । पणविवि वीरजिणिंदं पच्छा णयलक्खणं वोच्छं ।।1।। वीरं विषयविरक्तं विगतमलं विमलज्ञानसंयुक्तम् । प्रणम्य वीरजिनेन्द्रं पश्चान्नयलक्षणं वक्ष्ये ।।1।।
अर्थ - कर्मों को जीतने से वीर, विषयों से विरक्त, कर्ममल से रहित और निर्मल केवलज्ञान से युक्त महावीर जिनेन्द्र को नमस्कार करके पश्चात् नय का लक्षण कहूँगा।
विशेषार्थ- यह मंगलाचरण स्वरूप गाथा है। रागादि दोषों से रहित तथा निर्मल ज्ञान युक्त वीर प्रभु को नमस्कार कर, नयों का लक्षण कहूंगा । इस प्रकार की प्रतिज्ञा देवसेनाचार्य महाराज (ग्रन्थकर्ता) ने की है।
नय की परिभाषा जं णाणीण वियप्पं सुयभेयं वत्थुयंससंगहणं । तं इह णयं पउत्तं णाणी पुण तेहि णाणेहिं ।।2।। यो ज्ञानिनां विकल्पः श्रुतभेदो वस्त्वंशसंग्रहणम् । स इह नयः प्रोक्तः ज्ञानी पुनस्तैनिः ।।2।।
अर्थ - श्रुत ज्ञान के आश्रय को लिये हुए ज्ञानी का जो विकल्प वस्तु के अंश को ग्रहण करता है उसे नय कहते है । उस ज्ञान से जो युक्त होता है वह ज्ञानी है।
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