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________________ धर्म को अन्य में आरोपण करना व्यवहार नय का विषय है । इसी से व्यवहार नय को असत्यार्थ या अभूतार्थ कहा है । किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि व्यवहार नय सर्वथा ही मिथ्या है। यदि ऐसा माना जायेगा तो परमार्थ से संसार और मोक्ष का ही अभाव हो जायेगा; क्योंकि जीव की संसार दशा भी तो व्यवहार से ही है । संसार दशा जीव का स्वरूप तो नहीं है, इसीलिए पराश्रित होने से वह व्यवहार नय का विषय है । और संसार पूर्वक ही मोक्ष होता हैं अतः जब संसार सर्वथा मिथ्या ठहरेगा तो मोक्ष का प्रश्न ही नहीं उठता । और जब संसार तथा मोक्ष नहीं रहेगा तो संसार के कारण आसव, बन्ध तथा मोक्ष के कारण संवर और निर्जरा भी नहीं रहेंगे। इसके सिवाय शरीर जीव को सर्वथा भिन्न मानकर उनका घात करने से हिंसा का पाप नहीं लगेगा । यदि पाप मानते हो तो सिद्ध होता है कि व्यवहार नय सर्वथा मिथ्या नहीं है । बंधे वि मुक्खहेऊ अण्णो ववहारदो ये णायव्वा । णिच्छयदो पुण जीवो भणिओ खलु सव्वदरसीहिं ॥65|| बन्धेऽपि मुख्यहेतुरन्यो व्यवहारतश्च ज्ञातव्यः । निश्श्चयतः पुनर्जीवो भणितः खलु सर्वदर्शिभिः ||6511 अर्थ व्यवहार नय से बन्ध की तरह मोक्ष का हेतु भी अन्य जानना चाहिए। किन्तु निश्चयनय से सर्वदर्शी भगवान् ने निजभाव को बन्ध और मोक्ष का कारण कहा है। - विशेषार्थ - जो पराश्रित कथन है वह व्यवहारनय है । जो स्वाश्रित है वह निश्चय है । अतः व्यवहारनय से बन्ध की तरह मोक्ष का कारण भी अन्य है और निश्चयनय से बन्ध और मोक्ष का कारण आत्मा का भाव है । Jain Education International 47 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002704
Book TitleLaghu Nayachakrama
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherPannalal Jain Granthamala
Publication Year2002
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size3 MB
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