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________________ एकेन्द्रियादिदेहा जीवा व्यवहारतस्तु जिनदृष्टाः। हिंसादिषु यदि पापं सर्वत्र किं न व्यवहारः ।।64।। अर्थ - जिनेन्द्र देव ने सर्वत्र पर्याय रुप से व्यवहार को सत् कहा है। जो व्यवहार को सत् नहीं मानता उसके मत में संसार और मोक्ष के कारण कैसे बनेंगे ? यह चार गति रुप संसार है उसके हेतु शुभ और अशुभ कर्म है। यदि वह मिथ्या है तो उसके मत में सांख्य की तरह वह संसार कैसे बनेगा ? जिनेन्द्र देव ने व्यवहार नय से एकेन्द्रिय आदि जीवों के शरीर को जीव कहा है। यदि उनकी हिंसा करने में - पाप है तो सर्वत्र व्यवहार क्यों नहीं मानते? विशेषार्थ - व्यवहारनय से जीव और शरीर एक हैं, किन्तु निश्चयनय से दोनों दो द्रव्य हैं वे कभी एक नहीं हो सकते। इसी तरह संसारी जीव कर्मों से बद्ध है और कर्म पौद्गलिक होने से रूप, रस, गन्ध स्पर्श गुणवाले हैं। इसलिए व्यवहार नय से जीव को भी रूपादिवान् कहा जाता है। किन्तु निश्चयनय से जीव रूपादिवाला नहीं है। इसी तरह संसारी जीव को बादर या सूक्ष्म, पर्याप्त या अपर्याप्त, एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय, सैनी, असैनी आदि कहा जाता है, यह सब व्यवहारनय से है । क्योंकि बादर या सूक्ष्म और पर्याप्त या अपर्याप्त तो शरीर होता है । इन्द्रियाँ भी शरीर- में ही होती है। जीव में तो इन्द्रियाँ नहीं होती। किन्तु उस शरीर में जीव का निवास होने से जीव को बादर आदि कहा जाता है। जैसे जिस घड़े में घी रखा रहता है उसे घी का घड़ा कह देते हैं। वास्तव में तो घड़ा घी का नहीं, मिट्टी का है। वैसे ही अज्ञानी लोगों को शुद्ध जीव का ज्ञान न होने से और अशुद्ध जीव से ही सुपरिचित होने से इन्द्रिय आदि के द्वारा ही जीव का ज्ञान कराया जाता है। किन्तु यथार्थ में तो ये सब शरीर के धर्म है । अतः अन्य के 46 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002704
Book TitleLaghu Nayachakrama
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherPannalal Jain Granthamala
Publication Year2002
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size3 MB
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