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________________ ज्ञानमपि हि पर्यायं परिणममाणं तु गृह्णाति यस्तु । व्यवहारः खलु जल्पति गुणेषूपचरितपर्यायः ||591। अर्थ परिणमन शील ज्ञान को पर्याय रुप से कहा जाता है इसे गुणों - में पर्याय का उपचार करने वाला असद्भूत व्यवहारनय कहते है । विशेषार्थ - ज्ञान गुण है, किन्तु वह भी परिणमनशील है अतः उसे ज्ञानपर्याय रूपसे कहना गुण में पर्याय का उपचार करने वाला असद्भूत व्यवहारनय है । स्वजाति विभाव पर्याय में स्वजाति द्रव्य का आरोपण करने वाला असद्भूत व्यवहार नय दट्ठूण थूलखंधो पुग्गलदव्वोत्ति जंपए लोए । उवयारो पज्जाए पोंग्गलदव्वस्स भणइ ववहारो ||60|| दृष्ट्वा स्थूलस्कन्धं पुद्गलद्रव्यमिति जल्पति लोके । उपचारः पर्याये पुद्गलद्रव्यस्य भणति व्यवहारः ||60|| अर्थ स्थूल स्कन्ध को देखकर लोक में उसे ' यह पुद्गल द्रव्य है' ऐसा कहते है इसे पर्याय में पुद्गल द्रव्य का आरोप करने वाला व्यवहार नय कहते है । विशेषार्थ अनेक पुद्गल परमाणुओं के मेल से जो स्थूल स्कन्ध बनता है वह पुद्गल द्रव्य की विभाव पर्याय है । उसे पुद्गल द्रव्य कहना I स्वजाति पर्याय में स्वजाति द्रव्यका आरोप करने वाला असद्भूत व्यवहारनय कहते हैं । Jain Education International - 44 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002704
Book TitleLaghu Nayachakrama
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherPannalal Jain Granthamala
Publication Year2002
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size3 MB
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