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__ अन्यप्रकार से द्रव्यार्थिक नय के 10 भेद पर्यायार्थिक नय के 6 भेद तथा उपनय के तीन भेद बतलाकर उनके स्वरूपों का विवेचन किया है । अंत में ग्रंथकार ने व्यवहार को गौण कर, मैं परभाव रहित ज्ञाता दृष्टा स्व संवदेन गम्य हूँ इस प्रकार की भावना कर, स्वचारित्र को उपलब्ध करना चाहिए ऐसा निर्देश कर,नयचक्र की उपयोगिता निर्दिष्ट की है। ग्रंथ की विशेषताएँ -
__ लघुकाय इस ग्रंथ में नय के अलावा द्रव्य, गुण, पर्याय, प्रमाण का वर्णन बिल्कुल भी नहीं किया गया है। एक मात्र नयों का ही विवेचन इस ग्रंथ में किया गया है ।इस ग्रंथ में नय की उपयोगिता में यह कहा गया है कि -
"जो जन नय दृष्टि से विहीन है उन्हें वस्तु-स्वरूप की उपलब्धि नहीं होती है और वस्तु स्वभाव को नहीं जानने वाले सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते है ?"
(गाथा/10) नय सिद्ध योगी ही आत्मानुभवी होता है -
“जह रससिद्दो वाई हेमं काऊण भुंजये भोगं ।
तह णय सिद्दो जोई अप्पा अणुहवउ अणवरयं ।। (गाथा/77) इस ग्रंथ में नयों का स्वरुप निर्दिष्ट करने के पश्चात् साधक हो यह स्पष्ट संदेश दिया है कि स्वभाव आराधना के काल में व्यवहार नय को गौण करना चाहिए।
ववहारादो बंधो मोक्खो जहा सहावसंजुत्तो।
तहा कर तं गउणं सहावमाराहणाकाले || (गाथा/76) इसप्रकार इस महत्वपूर्ण ग्रंथ का बारम्बार चिन्तन /मनन अपेक्षित है। आशा है नय जिज्ञासु पाठक इसका पूर्णतः लाभ लेंगे । अंत में ब्र. प्रदीप जैन “पीयूष" के हम लोग अत्यधिक आभारी हैं जिनकी धर्मानुकम्पा से इस ग्रंथ का प्रकाशन डॉ. पं. पन्नालाल जैन ग्रंथमाला की ओर से हो रहा है। इसके साथ हम लोग ब्र. त्रिलोक जी को हृदय से स्मरण करते हैं जिन्होंने हम लोगों के कार्य में समय समय पर आन्तरिक वात्सल्य से अभिभूत होकर, यथा संभव सहयोग प्रदान किया है।
इस ग्रंथ के संपादन में त्रुटियां होना संभव है विज्ञ जन सुधार कर, इस ग्रंथ का लाभ ले।
ब. विनोद जैन ब्र. अनिल जैन
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