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________________ स्वजातीय विजातीय द्रव्य में स्वजाति विजातीय गुणारोपण करने वाला असद्भूत व्यवहार नय णेयं जीवमजीवं तं पिय णाणं खु तस्स विसयादो। जो भणइ एरिसत्थं ववहारो सो असब्भूदो ||56|| ज्ञेयं जीवमजीवं तदपि च ज्ञानं खलु तस्य विषयात् । यो भणति ईदृशार्थं व्यवहारः सोऽसद्भूतः ।। 56।। अर्थ - ज्ञेय जीव भी है और अजीव भी है ज्ञान के विषय होने से उन्हें जो ज्ञान कहता है , वह असद्भूत व्यवहार नय है। विशेषार्थ - ज्ञान के लिए जीव स्वजाति द्रव्य है और जीव के लिए ज्ञान स्वजाति गुण है, क्योंकि जीव द्रव्य और ज्ञान गुण दोनों एक हैं। ज्ञान के बिना जीव नहीं और जीव के बिना ज्ञान नहीं। इसके विपरीत अजीव द्रव्य के लिए ज्ञानगुण विजातीय है और ज्ञानगुण के लिए अजीव द्रव्य विजातीय है ; क्योंकि दोनों में से एक जड़ है तो दूसरा चेतन है। किन्तु ज्ञान जीव को भी जानता है और अजीव को भी जानता है । इसलिए ज्ञान के विषय होने से जीव और अजीव को ज्ञान कहना स्वजाति, विजाति द्रव्य में स्वजाति, विजाति गुण का आरोप करनेवाला असद्भूत व्यवहार नय है । स्वजातिद्रव्यमेंस्वजातिविभावपर्यायका आरोपण करनेवालाअसद्भूतव्यवहार नय परमाणु एयदेसी बहुप्पदेसी पयंपदे जो दु । सो ववहारो णेओ दव्वे पज्जायउवयारो ।।57।। परमाणुरेकदेशी बहुप्रदेशी प्रजल्पति यस्तु। स व्यवहारो ज्ञेयः द्रव्ये पर्यायोपचारः ।।57।। | 42] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002704
Book TitleLaghu Nayachakrama
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherPannalal Jain Granthamala
Publication Year2002
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size3 MB
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