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________________ पण्णवणभाविभूदे अत्थे जो सो हु भेयपज्जाओ। अह तं एवंभूदो संभवदो मुणह अत्थेसु ।।45।। प्रज्ञापनं भाविभूतेऽर्थे यः स हि भेदपर्यायः । अथ स एवं भूतः संभवतो मन्यध्वं अर्थेषु ।।45।। अर्थ - इस गाथा का अर्थ स्पष्ट नहीं है। संभव भावार्थ यह प्रति भासित होता है कि वर्तमान , भूत और आगामी प्रत्येक समय की पर्यायों में जो भेद है । एवंभूत नय यह भेद स्वीकार करता है। शुद्ध सद्भूतव्यवहार नयका स्वरूप गुणगुणिपज्जयदव्वे कारयसब्भावदो य दव्वेसु । सण्णाईहि य भेयं कुण्णइ सब्भूयसुद्धियरो 1146|| गुणगुणिपर्ययद्रव्ये कारक सद्भावतश्च द्रव्येषु । संज्ञादिभिश्च भेदं करोति सद्भूतशुद्धिंकरः ।।46।। अर्थ - शुद्ध सद्भूत व्यवहार नय गुण और पर्याय के द्वारा द्रव्य में तथा कारक भेद से द्रव्यों में संज्ञा आदि के द्वारा भेद करता है ।।46।। विशेषार्थ - सद्भूत व्यवहार नय के दो भेद हैं- शुद्धसद्भूत व्यवहार नय और अशुद्ध सद्भूत व्यवहारनय । सद्भूत व्यवहार नय का विषय एक ही द्रव्य होता है । शुद्ध गुण और शुद्ध गुणी में, शुद्ध पर्याय और शुद्ध पर्यायी में भेद करनेवाला शुद्धसद्भूत व्यवहार नय है, जैसे जीव के केवलज्ञानादि गुण है। इसे अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय भी कहते हैं। और अशुद्ध गुण अशुद्ध गुणी में तथा अशुद्ध पर्याय और अशुद्ध पर्यायी में भेद करने वाला अशुद्ध सद्भूतव्यवहारनय है; जैसे जीव के मतिज्ञानादिगुण हैं। इसे उपचरित सद्भूतव्यवहारनय भी कहते हैं। | 36 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002704
Book TitleLaghu Nayachakrama
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherPannalal Jain Granthamala
Publication Year2002
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size3 MB
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