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________________ भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्धद्रव्यार्थिकनय भेदे सदि संबंधं गुणगुणियाईण कुणइ जो दव्वे । सो वि असुद्धो दिट्टो सहिओ सो भेदकप्पेण ।।23|| भेदे सति सम्बन्धं गुणगुण्यादीनां करोति यो द्रव्ये। सोप्यशुद्धो दृष्टः सहितः स भेदकल्पनया ।।23।। अर्थ - जो नय द्रव्य में गुण-गुणी आदि का भेद करके उनके साथ सम्बन्ध कराता है वह भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है, क्योंकि वह भेद कल्पना से सहित हैं। विशेषार्थ - आत्मा में ज्ञान, दर्शन आदि गुणों की कल्पना करना अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय है । अर्थात् एक अखण्ड द्रव्य में गुणों का भेद करना अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय है । अन्वयद्रव्यार्थिकनय णिस्सेससहावाणं अण्णयरूवेण दव्वदव्वेदि। दव्वठवणो हिजो सोअण्णयदव्वत्थिओभणिओ।।24|| निःशेषस्वभावानां अन्वयरूपेण द्रव्यं द्रव्यमिति । द्रव्यस्थापना हि यः सोऽन्वयद्रव्यार्थिको भणितः ।।24।। अर्थ - समस्त स्वभावों में जो यह द्रव्य है इस प्रकार अन्वयरुप से द्रव्य की स्थापना करता है वह अन्वय द्रव्यार्थिक नय है। विशेषार्थ - द्रव्य का गुणपर्याय स्वभाव है और गुण पर्याय और स्वभाव में यह द्रव्य है, यह द्रव्य है ' ऐसा बोध करानेवाला नय अन्वय द्रव्यार्थिक है। अन्वय का अर्थ है - 'यह यह है' इस प्रकार की अनुस्यूत प्रवृत्ति वह जिसका | 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002704
Book TitleLaghu Nayachakrama
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherPannalal Jain Granthamala
Publication Year2002
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size3 MB
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