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________________ व्यवहार नय : संग्रह नय के द्वारा ग्रहण किये हुए पदार्थों का विधिपूर्वक अवहरण अर्थात् भेद करना व्यवहारनय है। सर्व संग्रह नय के द्वारा जो वस्तु ग्रहण की गई है , वह अपने उत्तर भेदों के विना व्यवहार कराने में असमर्थ है , इस लिये व्यवहार नय का आश्रय लिया जाता है। जैसे - संग्रह नय का विषय जो द्रव्य है, वह जीव अजीव की अपेक्षा किये बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिये जीव द्रव्य है और अजीव द्रव्य है, इसप्रकार के व्यवहार का आश्रय लिया जाता है । जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य भी जब तक संग्रह नय के विषय रहते हैं तब तक वे व्यवहार कराने में असमर्थ हैं इसलिये व्यवहार से जीव द्रव्य के देव नारकी आदि रूप और अजीव द्रव्य के घटादि रूप भेदों का आश्रय लिया जाता है । इस प्रकार इस नय की प्रवृत्ति वहाँ तक होती है, जहाँ तक वस्तु में फिर कोई विभाग करना सम्भव नहीं रहता। ऋजुसूत्र नय : ऋजुसूत्र नय अतीत और अनागत तीनों कालों के विषयों को ग्रहण न करके वर्तमान काल के विषयभूत पदार्थों को ग्रहण करता है, क्योंकि अतीत के विनष्ट और अनागत के अनुत्पन्न होने से उनमें व्यवहार नहीं हो सकता। वह वर्तमान काल समय मात्र है और उसके विषयभूत पर्यायमात्र को विषय करनेवाला ऋजुसूत्र नय है। ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा जिस समय प्रस्थ से धान्य मापे जाते हैं, उसी समय वह प्रस्थ है। शब्द नय: 'शपति' अर्थात् जो पदार्थ को बुलाता है अर्थात् पदार्थ को कहता है या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002704
Book TitleLaghu Nayachakrama
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherPannalal Jain Granthamala
Publication Year2002
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size3 MB
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